आकलन : ओैर प्रासंगिक हुए अम्बेडकर

Last Updated 14 Apr 2017 01:22:41 AM IST

इतिहास से लेकर राजनीति तक की यात्रा में जैसे-जैसे हम नई शताब्दी में प्रवेश करते हैं.


आकलन : ओैर प्रासंगिक हुए अम्बेडकर

वैसे-वैसे जिन महापुरुषों के व्यक्तित्व-कृतित्व का दबाव आम और खास लोगों पर हुआ है, उनमें बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर भी एक महत्त्वपूर्ण हैं. उनके बारे में अब विश्वविद्यालयों से लेकर संसद तक में अच्छी खासी चर्चा होने लगी है. 1942 के जुलाई में नागपुर में आयोजित ‘ऑल इंडिया डिप्रेस्ट क्लासिक कांफ्रेंस’ के तृतीय अधिवेशन में डॉ.अम्बेडकर ने कहा था,  ‘हमारा महान कर्तव्य है कि हम लोकतंत्र को जीवन संबंधों के मुख्य सिद्धांत के रूप में खत्म होता हुआ न देखें. यदि हम लोकतंत्र में विश्वास करते  हैं तो हमें इसके प्रति सच्चा एवं वफादार होना चाहिए. हम कुछ भी करें, हमें अपने शत्रुओं को प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों-स्वतंत्रता, समता एवं बंधुता का अंत करने में मदद नहीं करनी चाहिए. लोकतांत्रिक सभ्यता को बनाए रखने के लिए हमें अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ-साथ मिलकर चलना चाहिए.’ यही नहीं, आम आदमी के पक्ष में वे अंतिम समय तक सजग रहे. उनके अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर सवाल उठाते रहे.

बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउन्सिल डिबेट्स (24 फरवरी,1927 ) देखें तो डॉ.अम्बेडकर के शराब के बारे में विचारों का पता चलता है. उन्होंने बजट चर्चा के दौरान कहा था, ‘क्या यह आवश्यक है कि आप शराबखोरों की स्थिति सुधारने के लिए इस धन का व्यय करें या आपको उस धन को उन बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना चाहिए, जो शिक्षा नहीं ले पाते? यह महत्त्व का प्रश्न है. वास्तव में, क्या उनके बच्चों की शिक्षा उन दस लाख शहरी लोगों से कम महत्त्वपूर्ण है, जो शराब पीना पसंद करते हैं? महोदय, मैं इस पर विश्वास नहीं करता. मैं स्वयं शराब नहीं पीता और मैं चाहता हूं कि कोई भी न पिए. परंतु समस्या यही है. अगर आप मुझे एक शिक्षित व्यक्ति  दिखा दें जो संयमी भी हो, तो मैं उसका स्वागत करूंगा. लेकिन अगर आप ऐसे संयमी को अपनाने को कहते हैं, जो मूर्ख हो, जो निकम्मा हो, जो कुछ नहीं समझता हो, तो मैं उसकी तुलना में उस व्यक्ति को पसंद करूंगा, जो पीता हो, परंतु कुछ जानता तो हो. मेरी वही स्थिति है. मैं समझता हूं, वित्त मंत्री को ऐसी ही स्थिति को कराधान के प्रस्ताव जिसे वह प्रांत पर लगाना चाहते हैं, वितरण करते समय ध्यान में रखनी चाहिए.

एक और विकल्प लें. मैं जन-स्वास्थ्य की बात कर रहा हूं. यह प्रांत जन-स्वास्थ्य पर जो कुल 31,48,000 रु पये की मामूली राशि खर्च करता है, इसका हिसाब लगाएं, तो यह हमारे सम्पूर्ण बजट के कुल ढाई प्रतिशत है. महोदय, गांवों में पानी की तत्काल आवश्यकता है. सैकड़ों गांवों को पानी नसीब नहीं होता. जो कोई भी गांव में जाएगा, उसे महसूस होगा कि गांव गोबर के ढेर के सिवाय और कुछ नहीं है. उन्हें गांव कहना गलत है. उन्हें रहने की जगह कहना भी गलत है. हमारे प्रदेशों के गांवों में जो गंदगी है, उनमें सुधार लाना आज की तात्कालिक आवश्यकता है. सैकड़ों लोग मलेरिया व अन्य बीमारियों से मर रहे हैं. मुश्किल से ही कहीं औषधालय है. दवा के वितरण या चिकित्सा के लिए शायद ही कहीं कोई व्यवस्था है.’

वहीं शिक्षा, जनसंख्या और आपराधिक जातियों के संदर्भ में अम्बेडकर का कहना था, ‘सदियों से कथित उन्नत और शिक्षित वर्गों के शासन का हमें बहुत ही कड़वा अनुभव है. मेरे विचार में उन्नत वर्गों के लिए यह गौरव की बात नहीं है कि इस देश में जनसंख्या के एक बड़ा हिस्से को अपराधी जातियों के नाम से जाना जाता है. निस्संदेह, यह उनके लिए गौरव की बात नहीं है कि देश में एक ऐसी आबादी है, जिसे अस्पृश्य माना जाता है.  निश्चय ही वे दलित वर्गों के स्तर को उठा सकते थे, वे अपराधी जातियों के स्तर को उठा सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा न भूतकाल में किया और न ही भविष्य में वे इस दिशा में कुछ करना चाहते हैं. उनकी निर्दयतापूर्ण उपेक्षा ने और हमारी प्रगति के प्रति सक्रिय विरोध द्वारा, उन्होंने हमें यह पक्का विश्वास दिला दिया है कि वे वास्तव में हमारे शत्रु हैं.’

‘हरिजन’ शब्द के बारे में डॉ अम्बेडकर का विचार था कि दुर्भाग्यवश अछूत कहलाने वाले विस्तृत वर्ग के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना मकसद है बल्कि उस अभिव्यक्ति को मान्यता देने की इच्छा है जो लंबे समय से प्रचलन में है. मैं उनसे निवेदन करता हूं कि वह यह न समझें कि ‘हरिजन’ शब्द या उनकी परिभाषा में उनके संप्रदाय की अवमानना करने का प्रयास किया गया है. मैं यह अवश्य कहूंगा कि अब व्यावहारिक रूप से ‘हरिजन’ शब्द ‘अस्पृश्य’ शब्द का पर्यायवाची बन गया है, इसके अतिरिक्त इस नाम में और कुछ नहीं है, और मैं मानता हूं कि अगर माननीय प्रधानमंत्री (उन दिनों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) हमारी तरह से ही सोचते हैं कि ‘हरिजन’ शब्द की अभिव्यक्ति ‘अछूत वर्ग’ के समान बन गई है, तब यह उनका कर्तव्य हो जाता था कि वह उस समय इस शब्द को वापस ले लेते और बाद में किसी वैकल्पिक नाम को ढूंढ़ने के दृष्टिकोण से हमसे इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करते. उनके तर्कों से हमें कोई विश्वास प्राप्त नहीं हुआ. इसलिए मैं इस सदन से जाता हूं.’ डॉ. भीमराव अम्बेडकर और स्वतंत्र लेबर पार्टी के अन्य सदस्य महाराष्ट्र विधान सभा से चले जाते हैं.

डॉ.अम्बेडकर किसी भी परिस्थिति में अपने स्वाभिमान को ठेस नहीं लगने देना चाहते थे. वे समझौतावादी राजनीति से कोसों दूर थे. राजनीति में आना उनके लिए समाज सेवा था, न कि आज की तरह स्वयं सेवा. जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, उन्होंने उसमें दस्तक दी जनहित में. चाहे वह महिलाओं के प्रसूति अवकाश की बात हो या सफाईकर्मिंयों की हड़ताल का या फिर राष्ट्र से जुड़ा सवाल हो या भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का मामला हो. हर क्षेत्र में उन्होंने मानवीय आधार पर उनकी वकालत की, जो सदियों के उत्पीड़न के कारण पीछे रह गये थे. देश-समाज को उनके द्वारा दिए गये संविधान निर्माण सेवा को तो भुलाया ही नहीं जा सकता.

मोहनदास नैमिशराय
लेखक


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