परत-दर-परत : 77 दोहराने की तैयारी तो नहीं है !

Last Updated 09 Apr 2017 05:20:32 AM IST

विचार अभी बीज रूप में है, और सजग राजनीतिज्ञों तथा पत्रकारों द्वारा प्रस्तावित किया जा रहा है.


राजकिशोर, लेखक

दरअसल, इसकी एक हलकी-सी झलक उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों के पहले दिखाई पड़ चुकी थी. तब भाजपा को रोकने के लिए बिहार टाइप महागठबंधन का सुझाव दिया गया था. महागठबंधन का प्रयोग बिहार में सफल रहा था, और मोदी के अत्यंत आक्रामक प्रचार के बावजूद भाजपा बिहार में पैर जमा नहीं सकी थी. जानकार लोगों का मानना था कि  उप्र में भी यही किया जाना चाहिए. लेकिन सपा और बसपा में अहंकार इतना था कि वे आने वाली विपत्ति को पहचान नहीं सके.

कहते हैं कि भाजपा का असली लक्ष्य 1919 का लोक सभा चुनाव है. अभी ही धार्मिंक और सामाजिक असहिष्णुता का यह हाल है, तब भाजपा के छा जाने के बाद देश की हालत क्या होगी, इसकी कल्पना भी स्तब्धकारी है. आज हम एक ऐसे दौर में हैं, जब भक्ति काल, स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिकता के प्रकल्प की सारी उपलब्धियों पर पानी फिर चुका है. संविधान वही है, कानूनी ढांचा भी वही है, न्यायालयों का स्वरूप भी नहीं बदला है. पर लगता है कि हम अचानक किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गए हैं, जहां कोई भी अन्याय या जुल्म संभव है और उसके प्रभावी प्रतिकार का कोई रास्ता नहीं है. सभी आधुनिक, स्वतंत्रचेता, वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्न और मेधावी लोग सन्न हैं, जैसे वे अचानक आउटडेटेड हो गए हों. नारे हैं, जुमले हैं, धमकियां हैं, मुक्के हैं, पर कोई विचार नहीं है, जो हमें अच्छा जीवन बिताने और एक अच्छा देश बनाने के लिए प्रेरित करता हो.

क्या इसकी तुलना आपातकाल से की जा सकती है? जरूर, लेकिन बहुत ही सीमित स्तर पर. आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी, प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया था. पर वातावरण में वह जहर नहीं था जिसे हम आज महसूस कर रहे हैं. दिल्ली में कई मुसलमान बस्तियों को उजाड़ गया था और पूरे उत्तर भारत में जबरन नसबंदी का भय व्याप्त हो गया था, लेकिन किसी को यह डर नहीं था कि चार लाठीधारी आप के घर आएंगे और आप को जय श्रीराम कहने से लिए बाध्य कर देंगे या मुसलमानों को धमकाया जाएगा कि जन मन गण नहीं गाएंगे तो उन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया जाएगा.

आपातकाल की समस्या अपने साथ समाधान ले कर भी आई थी. गैर-कांग्रेसवाद का जो प्रयोग 1967 में शुरू हुआ था, उसके परिणामस्वरूप देश भर में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी थीं. उस प्रयोग में कम्युनिस्ट भी शामिल थे. इस प्रयोग पर ईमानदारी और निलरेभ ढंग से अमल किया गया होता तो आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती. बेशक, इन गैर-कांग्रेसी सरकारों में जनसंघ भी शामिल था, पर उस पर अन्य दलों का अंकुश भी था, जिस कारण वह सीमा से बाहर नहीं जा सकता था. फिर, उस जनसंघ में आज की भाजपा के बीज तो अवश्य थे, पर वे अभी अंकुरित नहीं हुए थे. उसके साथ बहस की जा सकती थी, पर आज की भाजपा के साथ बहस नहीं की जा सकती.

सच कहा जाए तो 1967 ही रूप बदल कर 1977 हो गया. फर्क यह था कि इस बार चार पार्टयिों का विलय हुआ, जिससे कम्युनिस्ट दूर रहे. फिर भी चार दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने इमरजेंसी लगाने वाली कांग्रेस पार्टी को धूल चटा दी. जनता पार्टी इसलिए नहीं टूटी कि उसमें फूट पड़ गई, वास्तव में यह फूट पड़ी ही इसलिए कि जनता पार्टी के राजनैतिक पहलू बहुत कमजोर निकले. सिद्धांत और कार्यक्रम से बेवफाई शुरू हुई तो जनता के साथ भी वफा का रिश्ता नहीं रह गया. आज स्थिति ज्यादा गंभीर है, क्योंकि संकट राजनैतिक ही नहीं, सांस्कृतिक भी है. अत: यह मात्र संयोग नहीं है कि आज एक बार फिर 1977 की याद आ रही है. हवा में यह सवाल तैर रहा है कि इस फासिस्ट संकट से मुक्त होने के लिए क्या अगले लोक सभा चुनाव के पहले सभी गैर-भाजपा दलों को ऐक्यबद्ध नहीं हो जाना चाहिए? स्पष्ट है कि कोई भी एक दल या दो दलों का गठजोड़  भाजपा के बराबर ठहर पाने की स्थिति में नहीं है. लेकिन गैर-भाजपा दलों की एक व्यापक एकता बनती है, तो भाजपा अजेय नहीं रह जायेगी. रणनीति के तौर पर यह एक व्यावहारिक प्रस्ताव है, लेकिन इसमें इतिहास की कोई सीख नहीं दिखाई पड़ती.

1967 में राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं, जिनके ढहने के बाद कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आई. 1977 में तो लग रहा था कि कांग्रेस का अंतिम इतिहास लिखने का क्षण आ गया है, पर जनता पार्टी की नादानियों की वजह से कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आई. 2019 में यह ट्रेजेडी नहीं दुहराई जाएगी, इसकी क्या गारंटी है? पांच मरीजों के गठजोड़ से किसी के भी चेहरे पर स्वास्थ्य की लालिमा नहीं आ सकती. इसलिए अगर किसी नये दल या गठबंधन का गठन हुआ और उसका लक्ष्य सिर्फ भाजपा को पराजित करना रहा, तो मैं नहीं समझता कि कोई बड़ी सफलता मिलने वाली है. खुदा न खास्ता सफलता मिल भी गई, तो उस सफलता को टिकाऊ बना पाना मुश्किल होगा. उसकी मिट्टी पर जो भाजपा दनदनाते हुए आएगी, वह ज्यादा क्रूर, प्रतिशोधी और दर्पीली होगी. इसलिए मुद्दा सिर्फ  एकता का नहीं, बल्कि ऐसी एकता का है, जो प्रगतिशील सिद्धांतों, ठोस कार्यक्रमों और शिष्ट आचरणों पर आधारित हो.



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