विश्लेषण : चीन, भारत और दलाई लामा
आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के बोमडिला (अरुणाचल प्रदेश) पहुंचने के बाद, उनकी यात्रा को लेकर पहले से ही असहज दिख रहा चीन, आक्रामक हो गया.
विश्लेषण : चीन, भारत और दलाई लामा |
उसने दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा को लेकर भारतीय राजदूत को समन भेजा, भारत की सीख दी और कई आरोप भी जड़े? बीजिंग ने दलाई लामा मसले पर भारत को नैतिकता बरकरार रखने और ‘डिप्लोमैटिक बैड गेम’ से बचने की सलाह भी दी. उसने भारत को बताया कि वह दलाई लामा से खेलकर अपनी गरिमा खो रहा है.
आरोप लगाया कि भारत चीन द्वारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कराए जा रहे निर्माण कार्य और नाभिकीय आपूर्ति समूह (एनएसजी) में चीन के विरोध से उपजी नाराजगी की वजह से भारत ‘तिब्बत कार्ड’ खेल रहा है. चेतावनी दी कि भारत तिब्बती धर्मगुरु का सहारा लेकर ऐसा कुछ भी न करे, जो चीन के हित में न हो. अब सवाल यह उठता है कि ये संवेदनाएं तब कहां चली जाती हैं, जब वह भारत को तबाह करने की खुलेआम धमकी देने वाले या भारत की संसद पर हमला करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादियों का समर्थन करता है? जब वह भारत के ऐतराज के बावजूद चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर का निर्माण करता है, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर एवं गिलगिट-बाल्टिस्तान में अपने प्रोजेक्ट्स को संचालित करता है, तब उसे भारतीय संप्रभुता और ‘वन इंडिया’ नीति का ख्याल ठीक उसी तरह से क्यों नहीं आता, जिस तरह से तिब्बत पर दलाई लामा, ताइवान के मामले में ‘वन चाइना नीति’ या दक्षिण चीन सागर में चीनी संप्रभुता को लेकर आता है?
एक सवाल यह भी है कि क्या भारत को अपनी उसी परम्परागत विदेश नीति पर चलते रहना चाहिए जिसमें ‘ऑब्जेक्शन स्ट्रेटेजी’ एक केंद्रीय विषय के रूप में थी अथवा ‘काउंटर स्ट्रेटेजी’ पर चलना चाहिए जो ‘लामा डिप्लोमैसी’ में देखी जा सकती है? क्या भारत सरकार के इस कदम को इंडिया सेंट्रिक विदेश नीति के रूप में देखा जा सकता है? दलाई लामा के अरुणाचाल दौरे को लेकर चीन के आरोपों और आपत्तियों के विपरीत भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि भारत के कई राज्यों में उनकी धार्मिंक और आध्यात्मिक गतिविधियों और दौरे पर कोई अतिरिक्त रंग नहीं भरना चाहिए. नई दिल्ली ने स्पष्ट किया कि भारत ‘वन-चाइना पॉलिसी’ का सम्मान करता है इसलिए चीन से भी ऐसे ही पास्परिक रुख की उम्मीद की जा सकती है. यही नहीं भारत की तरफ से चीन को कहा गया है कि वह दलाई लामा को लेकर कृत्रिम विवाद खड़ा न करे. दरअसल, चीन ऐसा प्रतिरोध इसलिए दर्ज कराता रहता है क्योंकि उसे लगता है कि दलाई लामा और अन्य प्रभावशाली हस्तियों की अरुणाचल यात्रा के माध्यम से भारत पूर्वोत्तर के इस में अपना दावा मजबूत कर रहा है. इस संदर्भ में तवांग की भौगोलिक स्थिति पर थोड़ा गौर करना आवश्यक होगा. उल्लेखनीय है कि तवांग की भौगोलिक स्थिति भारत और चीन दोनों के लिए ही सामरिक महत्त्व प्रदान करती है क्योंकि तवांग के पश्चिम में भूटान और उत्तर में तिब्बत है. ऐसा प्रतीत होता है कि चीन अपने दीर्घकालिक सामरिक उद्देश्यों को लेकर अब तवांग को हासिल करना चाहता है.
इन उद्देश्यों में पहला है ‘वन बेल्ट, वन रोड’ और दूसरा है; इसके जरिए भूटान एवं पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्रों से लेकर पूर्वी एशिया तक प्रजातीय कारकों को लेकर नये सामरिक उपायों की खोज करना. ऐसे में दलाई लामा फैक्टर उसके रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनता दिख रहा है या यों कहें कि भारत लामा डिप्लोमेसी के जरिए चीनी महत्त्वाकांक्षा पर कुछ हद तक विराम लगाने की रणनीति में सफल हो रहा है. ध्यान रहे कि भारत ने दलाई लामा को भारत में शरण दी, लेकिन धर्मशाला में उनकी निर्वासित सरकार के साथ किसी प्रकार के कोई संबंध नहीं रखे और न ही दलाई लामा को आगे कर कभी चीन के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी की. वजह यह कि ऐसा करने से चीन नाराज हो सकता है. लेकिन चीन तो भारत से कभी खुश हुआ ही नहीं. एक तरफ उसकी निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था भारत के बाजार से ऑक्सीजन प्राप्त करती रही और दूसरी तरफ वह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मजबूत करता रहा, ‘स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स’ के जरिए भारत को रणनीतिक रूप से घेरने की कोशिश करता रहा, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद से लेकर एनएसजी तक में भारत के स्थायी प्रवेश पाने से रोकने के लिए दीवारें खड़ी करता रहा और प्राय: चीनी सैनिकों को भारतीय सीमा में घुसपैठ कराकर भारत को चुनौती देता रहा व भारतीय सुरक्षा का जायजा लेता रहा. अब मोदी सरकार दलाई लामा पर एक स्पष्ट दृष्टिकोण का प्रस्तुत करती दिख रही है. इसकी वजह शायद यह है कि भारत अब बदल रहा है, जैसा कि केंद्रीय गृहराज्य मंत्री किरन रिजिजू ने कहा है. दलाई लामा की राष्ट्रपति से मुलाकात इस बदलाव का संकेत है. ध्यान रहे कि दिसम्बर में राष्घ्ट्रपति भवन में एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और दलाई लामा एक साथ नजर आए थे. 60 वर्षो में भारत के किसी राष्ट्रपति की दलाई लामा से सार्वजनिक मंच पर यह पहली मुलाकात थी.
सामान्य दृष्टिकोण एवं भारत की पारम्परिक विदेश नीति के पक्षधर भारत सरकार के इस कदम को अलाभकारी मान सकते हैं. लेकिन बदली वि व्यवस्था सशक्त राष्ट्र एवं आक्रामक विदेश नीति की मांग करती है. ऐसे में भारत से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह ‘रीयल पॉलिटिक’ की विदेश नीति को लेकर आगे बढ़े, जिसमें ‘इंडिया सेंट्रिक डिप्लोमेसी’ का सारतत्व निहित हो. मेरी दृष्टि में अब भारत को न केवल पूर्वोत्तर सीमा पर बल्कि अफगानिस्तान, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ‘एक्टिव काउंटर डिप्लोमेसी’ के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए.
यदि भारत ऐसा करने में सफल नहीं हो पाएगा तो ‘डिप्लोमैटिक डिवीडेंडस’ का रिसाव नई दिल्ली के बजाय बीजिंग की ओर रहेगा, जो कूटनीतिक संतुलन के लिहाज से बेहतर नहीं होगा. इसके साथ ही कदम-दर-कदम भारत को उसी प्रकार की नीतियों को अपनाने की जरूरत होगी जिस प्रकार की नीतियां चीन भारत को लेकर अपनाता है. इसके लिए भारत को वाशिंगटन और मॉस्को की ओर देखने के बजाय ढाका, काठमांडो, सियोल, टोक्यो, कैनबरा, हनोई..आदि की ओर देखने की जरूरत अधिक होगी.
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