दिल्ली : ‘आप’ की अराजकता
दिल्ली में आजकल आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार और उसके कर्ता-धर्ता अरविंद केजरीवाल के लिए कुछ भी शुभ नहीं हो रहा है.
दिल्ली : ‘आप’ की अराजकता |
पहले से 21 विधायकों को सरकारी लाभ पहुंचाने के मामले में चल रही सुनवाई और उसमें बुरी तरह फंसने के बाद अब केजरीवाल मानहानि मामले में वकील को सरकारी खजाने से फीस देने के मामले में घिरते दिख रहे हैं. कोढ़ में खाज यह भी है कि शुंगलू कमिटी की रिपोर्ट ने उनकी सरकार पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं. इस तरह उनकी फजीहत बढ़ती ही जा रही है.
जहां तक बात सरकारी खजाने से अपने वकील को फीस देने की सिफारिश करने की बात है तो यह केजरीवाल के खिलाफ जाता दिखता है. क्योंकि केस वन-टू-वन है. यानी पूरी तरह से व्यक्तिगत है. वैसे भी मानहानि का मामला दो लोगों के बीच का होता है.
केजरीवाल ने हाईकोर्ट में भी मान लिया है कि यह उसका निजी केस है. अब परदे के पीछे की बात बताता हूं. इस केस में एक बड़ी डील हुई है. डील यह कि राम जेठमलानी लालू प्रसाद यादव की लड़ाई तो मुफ्त में लड़ते हैं या पंजाब सरकार से तीन-चार लाख रुपये ही लेते हैं, लेकिन केजरीवाल से क्यों 22 लाख रुपये डिमांड करते हैं? यह सिर्फ इसलिए कि मानहानि के मामले में केजरीवाल के अलावा पांच और पार्टी नेता हैं, जिन्हें जेठमलानी डिफेंड कर रहे हैं. तो इनको भी वह डिफेंड कर रहा है. सरकार या जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए बाकी अन्य नेताओं ने कोई छोटा-मोटा वकील कर रखा है, मगर वास्तविक रूप से इन सभी छह लोगों के केस जेठमलानी ही लड़ रहे हैं. तभी वह इतनी बड़ी फीसद मांग रहे हैं.
दूसरी बात यह है कि अगर केस दिल्ली सरकार के खिलाफ होता तो दिल्ली सरकार का एक स्टैंडिंग पैनल होता है सरकार का, जो इस केस को डिफेंड करता है. उसी तरह अगर केंद्र सरकार के खिलाफ कोई केस होता तो, उसकी पैरवी कोर्ट में अटार्नी जनरल करते. वे स्थायी पेड-अधिवक्ता होते हैं. चूंकि, हर सरकार के वकीलों का पैनल होता है. तो जब आपने प्राइवेट वकील किया तो जाहिर तौर पर आपने सरकारी पैनल के वकीलों को नकार दिया. दूसरी बात, तो आपने पूरी तरह से जतला दिया कि यह केस निहायत व्यक्तिगत है. तीसरी बात यह है कि जैसे ही आपने प्राइवेट वकील से केस लड़ने के लिए संपर्क साधा तो उससे कांट्रैक्ट होता है और दिल्ली में कांट्रैक्ट करने का नियम होता है.
वह नियम यह है कि यहां कांट्रैक्ट राष्ट्रपति के नाम से होते हैं या उनके द्वारा अधिकृत व्यक्ति के नाम पर होता है. यानी कि कांट्रैक्ट उप राज्यपाल के जरिये होना चाहिए था. तो अगर जेठमलानी के साथ यह कांट्रैक्ट हुआ है, वैसे मेरे ख्याल से यह नहीं हुआ-पर हुआ है तो वह उप राज्यपाल के साथ होना चाहिए था. उसमें सारी पूर्व शत्रे होतीं. उसमें यह भी होता कि प्रति सुनवाई कितनी फीस देंगे, टोकन मनी कितना देंगे, रिटेनरशिप कितना देंगे? और अभी तो 22 सुनवाइयां ही हुई हैं. संभव है,इसकी 66 सुनवाई और हों! और केस लंबा चलता जाए.
यहां इस नियम का भी पालन नहीं किया गया.
सबसे आश्चर्य की बात है कि जेठमलानी ने कहा कि मैंने पेमेंट मांगी ही नहीं. केजरीवाल सरकार खुद ही कहती फिर रही कि जेठमलानी जी अपनी फीस भेज दो. सबसे बड़ी बात इसमें यह है कि जिसके बाद कोई सबूत नहीं चाहिए वह यह कि; दिल्ली सरकार का जो वित्त विभाग देखता है, वह फाइल पर लिख रहा है कि इस फाइल को उप राज्यपाल को मत दिखाना. इसका क्या मतलब है? उसका यह कहना अपने अफसरों को कि इस फाइल पर उप राज्यपाल की अनुमति मत लेना. यानी कि अफसरों ने ऐसा करने से मना कर दिया होगा कि हम ऐसा नहीं करेंगे, आप लिख दो,क्योंकि अफसर बंधे हुए हैं ट्रांजेक्शन रूल से.
इसका मतलब है कि चोरी करने की पूरी मंशा है. तो मेरा मानना है कि उप राज्यपाल फीस देने की इजाजत सरकारी खजाने से नहीं देंगे. तो कुल मिलाकर अगर अरुण जेटली केस जीत जाते हैं तो केजरीवाल को मानहानि की रकम भरनी पड़ेगी. अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो हो सकता है उनकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती हो या उन्हें जेल जाना पड़े. जहां तक शुंगूल कमिटी की रिपोर्ट में केजरीवाल सरकार पर लगाए गए गंभीर आरोपों की बात है तो, यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं को न तो कानून की जानकारी है, न संविधान के नियम-कायदों का पता है. इनको मालूम ही नहीं है कि दिल्ली राज्य नहीं है. केंद्र शासित या पूर्ण राज्य में विधेयक बनाने के नियम अलग-अलग हैं. राज्यों में विधेयक को लेकर दो संस्थाएं काम करती हैं.
राज्य सरकार और विधान सभा. जहां सरकार बिल लाने के बारे में विचार करती है, किसे इसमें शामिल करना है आदि-आदि और विधान सभा इसे पारित कर देती है. जबकि केंद्र शासित राज्यों में चार संस्थाएं विधेयक के मसले पर काम करती हैं. पहला-दिल्ली सरकार जो यह विचार करती है कि कौन-सा बिल आए, किस स्वरूप में आए, कौन-सा प्रावधान आएगा आदि-आदि. दूसरा-उप राज्यपाल जिनके पास बिल से संबंधित सुझाव लेने के वास्ते भेजा जाता है. यह अनिवार्य है. तीसरा-केंद्र सरकार, जिनकी सिफारिश के बाद बिल विधान सभा यानी चौथी संस्था के पास आता है और फिर पास होकर विधेयक बनता है.
केजरीवाल से पहले जो चार मुख्यमंत्री हुए उनके शासनकाल में 202 बिल पारित हुए और नियम के साथ हुए. लेकिन केजरीवाल सरकार इसके उलट चलती रही है. यही वजह है कि शुंगलू कमिटी ने कई सारे फैसलों को लेकर आपत्ति उठाई है. तो, 21 विधायकों के लाभ के पद का मामला, सरकारी खजाने से फीस देने का मामला या शुंगलू कमिटी की रिपोर्ट; ये सारे मामले दिल्ली सरकार के खिलाफ जाते दिख रहे हैं. जहां तक बात आम आदमी पार्टी या उनकी पार्टी के नेताओं की बात है, इन लोगों ने विरोधियों को इज्जत नहीं दी. ये कानून का सम्मान भी नहीं करते. अनुभवहीन तो हैं ही और यही दिल्ली के पीछे होने की वजह है.
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