कर्ज माफी : राहत नहीं उपचार की जरूरत
उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
कर्ज माफी : राहत नहीं उपचार की जरूरत |
संकट के दौर से गुजर रहे किसानों के हित में राज्य की योगी सरकार का यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है. मौजूदा परिदृश्य में देखा जाए तो किसानों को इससे भी ज्यादा मदद की दरकार है. लेकिन एक बड़ा सवाल यह उठता है कि यह मदद सिर्फ यूपी के किसानों को ही क्यों, क्या कर्ज माफी से किसानों का संकट दूर हो जाएगा, क्या उत्तर प्रदेश के बाद गरीबी में डूबे महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों के किसान कर्ज माफी की मांग नहीं करेंगे? आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर इस तरह की मांग उठ सकती है. इस मांग को लेकर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो जाए तो इसमें भी कोई अचरज नहीं होना चाहिए.
इस साल के अंत में गुजरात और कर्नाटक में होने वाले विधान सभा चुनावों में भी विभिन्न दलों द्वारा कर्ज माफी के वादे सुनने को मिल सकते हैं. दरअसल, चुनाव जीतने के लिए तमाम दलों ने कृषि ऋण माफी के तौर पर बड़े-बड़े वादों की जो परिपाटी शुरू की है, वह किसी भी सूरत में किसान और राष्ट्र के हित में नहीं है. वर्ष 2008 यानी लोक सभा चुनाव से ठीक साल भर पहले केंद्र की यूपीए सरकार ने देश के करीब तीन करोड़ सीमांत एवं लघु किसानों का 60,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया था. इस फैसले के बूते यूपीए को केंद्र में दूसरी पारी खेलने का मौका मिल गया. लेकिन क्या कर्ज माफी से किसानों की समस्या दूर हो गई?
यदि एनएसएसओ के आंकड़ों पर गौर करें तो देश के 52 फीसद किसान परिवार अब भी कर्ज में डूबे हुए हैं. कर्ज के बोझ से दबे हुए किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में भी कोई कमी नहीं आ रही है. ऐसे में कर्ज माफी की राहत से क्या किसान गरीबी के चंगुल से बाहर निकल पाएगा, यह कह पाना मुश्किल है. इसको देखकर यही लगता है कि किसी कैंसर पीड़ित व्यक्ति को उपचार के बजाय फौरी तौर पर अच्छे कपड़े और बढ़िया खाना दे दिया गया हो. इस तरह के फैसलों से आर्थिक रूप से स्वस्थ किसान भी बीमारों की जमात में शामिल हो रहे हैं. जो किसान समय पर कर्ज का भुगतान करते हैं, माफी के फैसले से वह अपने आपको ठगा-सा महसूस करते हैं. ऐसे किसानों की यह सोच काफी हद तक वाजिब भी है.
इसी का नतीजा है कि अब बड़ी संख्या में सक्षम किसान भी समय पर कर्ज नहीं लौटा रहे हैं. मेरी संज्ञान में भी ऐसे कई किसान हैं, जिन्होंने सिर्फ इसलिए कर्ज नहीं लौटाया कि देर-सबेर यह माफ हो ही जाना है. उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में लगभग सभी दलों ने कर्ज माफी के वादे को अपने-अपने घोषणा पत्रों में सबसे ऊपर रखा था. इसके बाद तो शायद ही किसी किसान ने कर्ज लौटाया हो. यदि देखा जाए तो सिर्फ कर्ज माफी के फैसले से पार्टियां सत्ता में आकर अपना लक्ष्य तो हासिल कर सकते हैं, लेकिन इससे किसानों का भला होने वाला नहीं है. किसानों को राहत नहीं, उपचार की जरूरत है. यदि सरकार किसानों का दर्द वाकई दूर करना चाहती है तो रोग की असली वजह को जानना होगा. साफ नीयत से इसका उपचार किया जाए तो यह असंभव भी नहीं है. मगर केंद्र में अभी तक जितनी भी सरकारें आई हैं, उन्होंने सिर्फ बड़े-बड़े वादे किए, किया कुछ भी नहीं. राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक ऐसी कोई ठोस नीति नहीं बनी है, जिससे किसानों की आय में हकीकत में इजाफा दिखाई दिया हो.
किसानों की सबसे बड़ी समस्या उसकी उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना है. इसमें कोई दो राय नहीं कि मौजूदा एनडीए सरकार ने फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छी-खासी वृद्धि की है. लेकिन यह उपाय नाकाफी है. किसानों से हर साल कहा जाता है कि पैदावार बढ़ाओ, लेकिन जब किसी फसल की बंपर पैदावार होती है तो बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं मिलते. जो मिलते भी हैं तो वह उचित दाम और समय पर भुगतान नहीं करते. इस साल गन्ना और आलू किसानों की समस्या सबके सामने है. बहरहाल, कर्ज माफी करने के बजाय यदि केंद्र सरकार किसानों की हकीकत में ही खुशहाली चाहती है तो उसे खेतीबाड़ी से जुड़ी तमाम समस्याओं की तह में जाना होगा. इन्हें दूर करने के लिए सिंचाई के साधन, राष्ट्रीय बाजार और आपदाओं से नुकसान की भरपाई के लिए बुनियादी सुविधाएं देनी होंगी. किसानों की आय बढ़ाने के लिए ढिंढोरा पीटने के बजाय ऐसे जमीनी उपाय करने की जरूरत है, जिससे उनका आर्थिक भविष्य सुरक्षित हो सके.
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