विश्लेषण : रसिया पर महाभारत
जब कुछ करने के लिए बड़े सवाल नहीं रहते, तब छोटी बातों पर बड़ी उत्तेजना पैदा होती है.
विश्लेषण : रसिया पर महाभारत |
उत्तर प्रदेश में नवगठित भाजपा की योगी सरकार की ‘एंटी रोमियो’ कार्रवाई पर प्रशांत भूषण के ट्वीट को लेकर जो अनुपातहीन प्रतिक्रिया पैदा हुई, वह इसी का द्योतक है. कुछ ही घंटों के भीतर प्रशांत पर कई जगह मुकदमे दायर हो गए, उनके आवास पर धावा बोला गया, आगे अंजाम भुगतने की धमकियां दी गई. हालांकि अब प्रशांत ने माफी मांग ली है. पर इस पूरे प्रकरण पर विचार की जरूरत है. आखिर ऐसा क्या कह दिया था प्रशांत ने? अपनी पहली ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘रोमियो ने तो केवल एक महिला से प्रेम किया था, जबकि कृष्ण तो ‘लीजेंड्री इव टीजर’ थे.
क्या सरकार में दम है कि वे अपने प्रहरी दल को एंटी कृष्ण स्क्वॉयड कहें?’ इसमें प्रयुक्त ‘लीजेंड्री इव टीजर’ का अर्थ हुआ ‘विख्यात रास रचैया’. बहरहाल, इस ट्वीट में जो बात रह गई, उसे दूसरी ट्वीट में प्रशांत ने कहा, ‘एंटी रोमियो स्क्वॉयड : शेक्सपीयर को भारत की श्रद्धांजलि! आश्चर्य न होना चाहिए यदि बदले में इंग्लैंड इव टीजर्स से निपटने के लिए एंटी कृष्ण स्क्यॉयड बना दे?’ एक तरफ ‘दैवी’ लीला, दूसरी तरफ ‘ऐतिहासिक’ कथानक; एक तरफ प्राचीन भारतीय कल्पना, दूसरी तरफ पुनर्जागरणकालीन इंग्लिश संस्कृति-इनके अंतरसंबंधों और अंतर्विरोधों का पक्ष सामने रखकर प्रशांत ने एक ही साथ कई संकेत किए. एक तो आदित्यनाथ के अभियान को प्रशांत ने गलत नहीं कहा, उसके नामकरण को गलत कहा. कारण साफ है.
साहित्य-निर्मित चरित्रों का अविवेकीपूर्ण उपयोग या उनके प्रति मतांध और दुराग्रही रुख अनुचित है. दूसरे, सड़क पर लड़कियां छेड़ने वालों को ‘रोमियो’ की संज्ञा देना एक प्रकार की सांस्कृतिक अवमानना है. सच तो यह है कि राह चलते गोपियों की मटकी फोड़ने वाले, नदी में नहाती गोपियों के कपड़े चुराकर भाग जाने वाले कृष्ण की ‘लीला’ का भी यह अपराधीकरण है. तीसरे, अज्ञान, दुराग्रह या मतांधता से परिचालित कार्रवाई के पीछे राजनीतिक उद्देश्य होता है. सांस्कृतिक राजनीति के नाम पर घृणा फैलाता है और जो राजनीतिक संस्कृति के लिए हानिकारक है.
यह बात आजमाकर देखी जा सकती है कि ‘एंटी रामियो दल’ में सक्रिय तत्वों से लेकर धमकी-मुकदमा-हमला करने वालों तक जितने लोग हैं, उनमें से शायद ही किसी ने शेक्सपीयर का नाटक पढ़ा हो या श्रीमद्भागवत के पन्ने पलटे हों! भारत की साहित्यिक संस्कृति ही नहीं, जिसका निर्माण भक्त कवियों के संघर्ष से हुआ है, बल्कि लोक संस्कृति भी, जिसका विकास जनजातीय समाजों से होता हुआ खेतिहर समाज की रचनाओं में उत्कर्ष प्राप्त किया, सभी में निष्कुंठ भाव और जीवन की सांगोपांग स्वीकार्यता के दर्शन होते हैं. अकारण नहीं है कि जिस राम की सौगंध खाकर मंदिर-मस्जिद विवाद को पिछले तीन दशकों से राजनीतिक खुराक बनाया गया है, उस राम को भारत की संस्कृति में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ तो माना गया लेकिन ‘पूर्णावतार’ माना गया गोपेर कृष्ण को. माखनचोरी की बाल-लीला से लेकर ग्वालिनों से छेड़छाड़ की रासलीला तक बहुत कुछ ऐसा है जिसे ‘मर्यादा’ की दृष्टि से निषिद्ध माना गया है. इस निषिद्ध को आचरण बनाने वाला ‘पूर्णावतार’ कहलाया, इसकी समझ के बिना राजनीति भले हो, वह रहेगी असांस्कृतिक अत: अमानवीय ही.
हम इस पर बहस नहीं करते कि सरकार बनते ही किसान का कर्ज माफ करने का वादा पत्रकार याद दिला रहे हैं. मगर सरकार उन क्षेत्रों में कार्रवाई कर रही है, जिनसे उत्तेजना पैदा की जा सके, सांप्रदायिक बंटवारा सुदृढ़ किया जा सके. बूचड़खानों पर कार्रवाई इसका उदाहरण है. ये बूचड़खाने ‘अवैध’ हैं, क्योंकि 5 लाख से 25 लाख तक की रित देकर उनमें से ज्यादातर अपना लाइसेंस रिन्यू नहीं करा सके और यह आरोप उन्होंने सरकारी अधिकारियों और पत्रकारों के सामने लगाया है. लेकिन हमें इस पर बात करने का हक है कि भारतीय समाज में तथाकथित ‘सांस्कृतिक’ राजनीति का प्रभुत्व होने से पहले इतनी असहिष्णुता नहीं थी. आस्था इतनी छुई-मुई नहीं थी. स्वयं कृष्ण को साहित्य में और लोक संस्कृति में रसिया, छलिया, चितचोर, माखनचोर तो कहा ही जाता रहा है, स्वयं रणछोड़ तक कहा गया है, जबकि आज उनके नाम का उपयोग अनुचित युद्ध-घोषणा के लिए हो रहा है.
इसीसे जाहिर होता है कि हमारे पुरखों ने कृष्ण का जो चरित्र बनाया था, वह राजनीतिज्ञों के लिए नहीं था. वह जीवन के वैभव और सौंदर्य को अनुभव करने के लिए था. मजेदार बात यह है कि जिस तरह गांव की गोपियों से कृष्ण की छेड़छाड़ का अनुचित अनुकरण वे शोहदे करते हैं जो स्कूल-कॉलेज के आस-पास लड़कियों छेड़ने के लिए एकत्र होते हैं, उसी तरफ कृष्ण के जुझारू संदेश का अनुचित उपयोग वे राजनीतिज्ञ करते हैं, जो ‘आस्था’ के नाम पर मतभेदों को कुचल देने पर आमादा हैं. अकारण नहीं है कि धमकी-हमला-गिरोह को नैतिक समर्थन देते हुए सुब्रह्मणयम स्वामी ने प्रशांत भूषण को ‘नक्सलवादी’ बताया है, जिनका काम ही हिन्दू आस्था पर प्रहार करना!
यही नहीं, महान हिन्दी उपन्यासकार फणीरनाथ रेणु ने ‘मैला आंचल’ में विद्यापति-नाथ का मनमोहक प्रसंग रचा है, जिसमें विकटा (विदूषक) द्वारा चुभती हुई टिप्पणियां की जाती हैं; ‘आहे, छोड़-छोड़ जदूपति अंगचर हो, हो भांगत न-ब सारी. ‘हों भैया! फोटा-फनटरोल का जमाना है. कपड़ा नहीं मिलता है. जरा होशियारी से..! अरे अपजस होइत जगत भरि हो! ..हरि के संग किछु डर नाहिं हे... ‘हां, हरि के संग काहे दोख होगा. जितना दोख हम सब लोगों के साथ. अपने खेले रसलील्ला, हमरे बेला में पंचायत का झाड़ू और जुत्ता.’ और अब योगी की पुलिस और फुर्सती ‘सैनिकों’ का लाठी-डंडा भी! क्या रेणु का मैला आंचल भी प्रतिबंधित होगा? संस्कृति की भावना को समझे बिना यदि ‘आस्था’ की राजनीति की जाएगी तो वह असांस्कृतिक उत्पात ही बनेगी. क्या एक जिम्मेदार शासन का यह दायित्व नहीं है कि वह अपनी कार्रवाई के परिणामों पर भी विचार करे? लफंगों को रोकने का काम गृहस्थों-प्रेमियों के उत्पीड़न में बदल जाए तो सत्ता की राजनीति और संस्कृति की चेतना का फर्क उजागर होता है.
| Tweet |