मीडिया : चैनल और पूर्वाग्रह
एक अंग्रेजी चैनल ‘आजादी’ शब्द से इस कदर परहेज करने लगा है कि आजादी शब्द दिखा नहीं और उसके एंकर उस पर टूटे नहीं.
मीडिया : चैनल और पूर्वाग्रह |
किसी ने आजादी की बात की नहीं कि एंकरों ने उसे ‘आजादी लीग’ कहा नहीं. आजादी लीग यानी जैसे मुसलिम लीग यानी विभाजनकारी लीग. एक अन्य अंग्रेजी चैनल हर उस मुददे पर राहुल को ठोकता रहता है जिसमें राहुल जरा भी बोलते हैं. माना राहुल का कुछ भी बोलना उनका गुनाह हो.
मीडिया सभी के प्रति क्रिटिकल रहे, मीडिया की क्लासिकल समझ ऐसा ही कहती है. सत्ता के प्रति अधिक क्रिटिकल रहे, यह भी समझ नई नहीं है, लेकिन अगर मुख्यधारा का मीडिया यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विपक्ष की ही बखिया उधेड़े, यह मीडिया की किस किताब में लिखा है? यों तो आज सोशल मीडिया ने जिस तरह से मुख्यधारा के मीडिया का स्पेस हड़पा है, जिस तरह सोशल मीडिया ने पुष्ट-अपुष्ट खबरों का घालमेल किया है, और एक ‘पोस्ट टुथ’ कल्चर चलाई है, जिस तरह से ‘फेक न्यूज’ की प्लांटिंग की जाती है, और मीडिया अभियान चलाए जाते हैं, उस तरह के माहौल में मुख्यधारा का मीडिया अपने आप में एक ‘सीमित अपराधी’ ही नजर आता है.
अगर वह कमजोर विपक्ष को ताकतवर सत्ता पक्ष से अधिक ठोकता है तो इसे साइबर स्पेस का असर माना जा सकता है. लेकिन यह भी तो माना जा सकता है कि मुख्यधारा के मीडिया की, उसके संपादकों की, उसके एंकरों की, रिपोर्टरों की, उसके नीति-नियंताओं की अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं भी हो सकती हैं, विचार हो सकते हैं, अभिरुचियां हो सकती हैं, जिनके तहत वह विपक्ष की कमियों के बारे में ज्यादा बताए और इस तरह अपनी ‘महान जनतांत्रिक भूमिका’ अदा करता रहे. और, एक लंबे अरसे तक यदि हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सत्ता पक्ष से एक भी कठोर सवाल पूछते न पाएं, अगर उसे सत्ता को तंग करते हुए न पाएं तो हम क्या सोंचे?
हम नहीं कहेंगे कि मीडिया ‘बिका हुआ’ है. हो सकता है कि यह ‘निरंतर पराजयों से खिसियाए विपक्ष’ का दबाव बनाने का तरीका भर हो. कई एंकरों पर उन्हीं की प्राइम टाइम बहसों में विपक्ष के कई प्रवक्ताओं ने आरोप लगाए हैं कि आप तो सत्ता के प्रवक्ता से भी ज्यादा बढ़-चढ़कर सत्ता का बचाव कर रहे हैं,..इत्यादि इत्यादि.
ऐसे हर अवसर पर एंकर यह कह कर कन्नी काटते रहे हैं कि आप तो संदेशवाहक को ही शूट कर रहे हैं यानी मीडिया को ही मार रहे हैं यानी कि मीडिया अपना काम सही कर रहा है. मीडिया भी एक सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में काम करता है, उस पर समय की राजनीति का प्रभाव हो सकता है लेकिन प्रभाव ‘दबाव’ नजर आने लगे तो चिंता होती है. कहने का मतलब यह नहीं है कि मीडिया विपक्ष का ही प्रवक्ता बन जाए. उसे ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए लेकिन यह भी तो न हो कि सत्ता पक्ष का ही भोंपू बन जाए. यह उसे किसने कह दिया कि विपक्ष को बात बेबात हर दम लतियाता रहे? इसी विंदु पर उसकी पोल खुल जाती है. कुछ उदाहरण देखें :
मीडिया का यकीन करें तो बेंगलुरू अब तक ‘रेप’ और वीआइपीज के ऐश की राजधानी बन चुकी है. न गुजरात की ऐसी घटनाएं बड़ी खबर बनती हैं, न एमपी या राजस्थान की. ऐसा लगता है कि सिर्फ बेंगलुरू ही नरक है, बाकी सब स्वर्ग. इस कारण यह है कि बेंगलुरू में कांग्रेस की सरकार है. चुनाव होने हैं. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान यों भी मीडिया के एक हिस्से का प्यारा अभियान है! आइए, अब यूपी की बात करें. एक नीति के तहत लाइसेंसशुदा बूचड़खानों के अलावा ज्यों ही बाकी बूचड़खाने बंद हुए त्यों ही यूपी में मीट की जगह वेजिटेबल की खपत बढ़ने की खबरें आने लगीं. ऐसा होता ही जब मीट नहीं है तो लोग दाल-सब्जी ही खाएंगे. लेकिन यह क्या कि अचानक कैमरे अलीगढ़ विश्वविद्यालय के होस्टलों की मैसों में पहुंच कर कवर करने लगे कि अब वहां मीट नहीं सब्जी-दाल पक रही है, मीनू ‘वेजी’ हो गया है. यह बड़ी ही चतुर राजनीतिक फोकसिंग है.
अलीगढ़ विवि मीडिया के लिए खास मानी रखता है. सब जानते हैं कि यह संवेदनशील जगह है. उसे फोकस करना खास तरह की राजनीति भी हो सकती है. लेकिन ऐसे संवेदनशील तार को क्यों अधिक छुआ जाता है? ऐसी न जाने कितनी छोटी-बड़ी खबरें होती हैं जिनको किसी न किसी को छेड़ने के लिए बनाया जाता है, रिपीट किया जाता है. जब चैनलों को मालूम है कि लगभग हरेक राजनीतिक दल धार्मिक पहचानों के विभाजन की खुली राजनीति कर चुका है, और कर रहा है, ऐसे में विभाजनकारी विंदुओं को छूने वाली खबरें चुनना या बनाना कहां की समझदारी है?
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