मुद्दा : स्कूलों में कब आएंगे गुरुजी?
किसी भी देश-समाज की पहचान का पैमाना वहां के शिक्षा के स्तर से ही तय होता है.
मुद्दा : स्कूलों में कब आएंगे गुरुजी? |
मोटे तौर पर जहां पर शिक्षा के प्रसार-प्रचार पर ईमानदारी से बल दिया जाता है, वे ही देश प्रगति की दौड़ में आगे निकल जाते हैं. दुर्भाग्यवश देश में स्कूली शिक्षा का स्तर तो दर्दनाक स्थिति पर पहुंच गया है. सरकार ने बीते सोमवार को संसद के पटल पर ‘एक स्कूल-एक अध्यापक’ विषय से संबंधित एक रिपोर्ट रखी. इसके अनुसार देश में 1,05,630 स्कूलों में मात्र एक ही शिक्षक है. यानी कक्षाएं 5 या 6 और शिक्षक एक. रिपोर्ट का तटस्थ भाव से विश्लेषण करने से समझ आता है कि स्कूली शिक्षा को लेकर लगभग सभी राज्यों का प्रदशर्न निराशाजनक है.
अब चूंकि यह आंकड़ा शुद्ध रूप से सरकारी है, इसलिए इस पर विवाद के लिए स्थान भी है. स्पष्ट है कि देश में लाखों शिक्षकों के पद रिक्त हैं. इन्हें क्यों नहीं भरा जा रहा, यह एक अहम सवाल है. आप खुद देख लें कि देश में शिक्षा व्यवस्था की स्थिति किस हद तक तक पटरी से उतर चुकी है. बेशक, स्कूली शिक्षा के स्तर में बड़ा सुधार किए बगैर हम सिर उठा कर नहीं चल सकते. किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह साहित्य हो या कला-संस्कृति, विज्ञान हो या खेल-कूद, विश्व के विकसित देशों के बराबरी में खड़े होने का सपना भी हम कैसे देख सकते हैं? यहां पर हम उन स्कूलों का तो जिक्र ही नहीं कर रहे जो मान्यता प्राप्त नहीं हैं. इस तरह के स्कूलों में भी करोड़ों बच्चे पढ़ रहे हैं या पढ़ने का ढोंग कर रहे हैं.
इन पर प्रशासन की नजर क्यों नहीं जाती, इस सवाल का उत्तर उन सभी को चाहिए, जो देश में स्कूली शिक्षा की बदहाली को लेकर चिंतित हैं. जो देश ज्ञान की देवी सरस्वती का अराधक होने का दावा करता है, वहां पर शिक्षा की इस तरह की बदहाल सच में डराती है. क्या कोई एक शिक्षक सारे स्कूल के सभी कक्षाओं को देख सकता है? यही भारत हर वर्ष 5 सितम्बर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाता है. उस दिन सारा देश अपने गुरु जनों के प्रति कृतज्ञता का भाव भी दिखाता है. लेकिन विद्यालयों की स्थिति के बारे में यह शर्मनाक आंकड़ा, पूरे देश का सिर शर्म से झुका देता है.
यह भी तथ्य है कि देश के मेधावी नौजवान आज के युग में कतई अध्यापक नहीं बनना चाहते. ये अध्यापन क्षेत्र से दूर भाग रहे हैं. आप अपने आसपास के किसी मेधावी लड़के या लड़की से मिलिए. वो आपको बताएंगे कि उसकी शिक्षक बनने में कतई दिलचस्पी नहीं है. जाहिर है, औसत या उससे भी निचले स्तर के इंटेलिजेंस का इंसान अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय तो नहीं कर सकता. क्या स्कूलों में बच्चे सिर्फ पढ़ने के लिए ही जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर हां में ही मिलेगा. पर गुस्ताखी माफ! फिर यह मत कहिए हम बेहतरीन खिलाड़ी क्यों नहीं निकालते. इस बात को समझ लें कि जब स्कूलों में बच्चों को खेल की आधारभूत सुविधा ही नहीं मिलेगी तो वे ओलंपिक खेलों में देश को खाक मेडल दिलवाएंगे?
देश के 70 फीसद स्कूलों में तो स्पोर्ट्स का कोई टीचर ही नहीं होगा. इतने ही स्कूलों में खेल मैदान भी नहीं होंगे और यदि होंगे भी तो खेतों या चरागाहों से भी बदतर. शिक्षकों के साथ भी कई स्तरों पर अन्याय ही होता है. उन्हें अपनी कक्षायें लेने के अलावा जनगणना के वक्त घर-घर जाकर आंकड़ें एकत्र करने से लेकर पंचायत से लेकर विधान सभा और लोक सभा चुनाव में पोलिंग बूथ पर भी ड्यूटी करनी पड़ती है. उन्हें ही मिड डे मील की व्यवस्था भी देखनी रहती है. और जब विद्यालयों में शिक्षक ही नहीं होंगे तो बच्चों को पढ़ाएगा कौन?
शिक्षा के अधिकार कानून के तहत एक स्कूल में 35 बच्चों पर एक टीचर होना अनिवार्य है. पर नियमों को कौन सुनता है. कहीं-कहीं तो 200 बच्चों पर 1 शिक्षक ही तैनात है और कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा विद्यालय ही शिक्षामित्र के सहारे चलता है. यह मजाक नहीं तो और क्या है? उधर, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव विकास के बड़े-बड़े दावे किया करते थे. राज्य में शिक्षकों के दो लाख पद रिक्त हैं. पिछले साल के दौरान उत्तर प्रदेश में स्कूली शिक्षा बद से बदतर होती चली गई.
उत्तर प्रदेश में अध्यापकों के रिक्त पद कब भरे जाएंगे, कोई नहीं जानता. पिछले शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों के अहम रोल का जिक्र किया. प्रधानमंत्री ने अपने स्कूल के दिनों के एक मास्टर जी का स्मरण भी किया. यहां तक तो सब ठीक है. पर देश में शिक्षकों को उनका हक दिलवाने का दायित्व समाज का है. सीधी सी बात यह है कि देश को अपनी स्कूली शिक्षा पर गंभीरता से फोकस करना होगा.
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