मिशन काबुल : क्या हो भारत की रणनीति?
पूरब में भारत और चीन, पश्चिम में फारस व मध्यसागरीय दुनिया के बीच एक जंक्शन के रूप में स्थापित अफगानिस्तान इतिहास की कई सदियों तक तमाम संस्कृतियों के केंद्र एवं पड़ोसियों का मिलन स्थल और प्रवास व आक्रमण के लिहाज से ‘फोकल प्वाइंट’ रहा.
मिशन काबुल : क्या हो भारत की रणनीति? |
प्राचीन दुनिया में व्यापारिक मागरे चौराहा होने के कारण इस देश के विषय में सहज निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह दुनिया की तमाम संस्कृतियों-सभ्यताओं से सम्पन्न होने के साथ-साथ नगरीय विकास की परम्परा में अग्रणी होने का गौरव प्राप्त कर गया होगा.
इस दृष्टि से तो अफगानिस्तान वैिक धरोहर रूप में तमाम दस्तावेजों में दर्ज होना चाहिए, लेकिन आधुनिक इतिहास के बहुत से पन्ने इसे ‘प्लेस ऑफ कॉन्फ्लिक्ट’ के रूप में पेश करते हुए दिखाई देते हैं. अब सवाल यह उठता है कि इस विरोधभास को किस नजरिए से देखा जाए? प्रश्न यह भी है कि अफगानिस्तान को ‘प्लेस ऑफ कान्फ्लिक्ट’ की स्थिति तक ले जाने में अहम भूमिका किसकी रही? आज अफगानिस्तान पर रूस-चीन-पाकिस्तान त्रिकोण की सक्रियता के निहितार्थ क्या हैं? क्या रूस अफगानिस्तान में पुन: 1979 के उद्देश्यों को लेकर प्रवेश करना चाहता है? यदि हां तो फिर अमेरिका का नजरिया क्या होगा? यहां एक अहम प्रश्न यह भी है कि क्या किसी तीसरे देश अथवा देशों को यह नैतिक अधिकार प्राप्त है कि वे उसके आंतरिक मामलों पर बैठक कर कोई निर्णय ले सकें?
अंतिम प्रश्न यह कि अपने संप्रभु और सामरिक हितों को देखते हुए भारत इस त्रिकोण की सक्रियता पर किस तरह प्रति-सक्रियता व्यक्त करेगा?
अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य बलों की वापसी के बाद अफगान संप्रभुता के अधीन शांति स्थापना से जुड़े इतिहास के आशावादी पृष्ठों के सृजन की उम्मीद जताई गई थी, मगर दिसम्बर 2016 से ऐतिहासिक हस्तक्षेपों की पृष्ठभूमि पुन: सृजित होती हुई दिखने लगी, जिसके अगुआ रूस एवं चीन है और एक विस्त सिपहसालार पाकिस्तान. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दिसम्बर 2016 में मॉस्को में रूस, चीन और पाकिस्तान अफगानिस्तान में शांति स्थापना का रोडमैप तैयार करने के लिए जुटे. किंतु अफगानिस्तान को इसमें शामिल नहीं किया गया.
गौर से देखें तो शांति के इन मसीहाओं में एक वह है, जिसने 1979 में अफगानिस्तान में प्रवेश कर इस देश को शीतयुद्ध के ‘कोर क्षेत्र’ में बदल दिया.
दूसरा (पाकिस्तान) वह है, जिसने 1980 के दशक में पहले प्रतिबद्ध अमेरिकी सहयोगी के रूप में बड़ी इमदाद लेकर मुजाहिदीनों को प्रशिक्षण दिया और मुजाहिदीन-तालिबान एलायंस तैयार कर अफगानिस्तान के नर्क के दरवाजे खोलने में महती भूमिका निभाई तत्पश्चात 2001 में ‘वार इनड्यूरिंग फ्रीडम’ में नैतिक सिपहसालार बनकर अलकायदा-तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का ढोंग किया. तीसरा (चीन) वह है, जिसकी नजर अफगान संपदा पर है. ऐसे में सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस त्रिकोण के उद्देश्य कितने नैतिक व पवित्र हैं? वर्तमान दौर में भारत और रूस के बीच आपसी संवाद में एक ‘गैप’ देखा जा सकता है इसलिए अफगानिस्तान एवं तालिबान पर रूस का जो संदिग्ध नजरिया दिख रहा है वह भारतीय हितों के प्रतिकूल है.
उल्लेखनीय है कि दिसम्बर में मस्को में हुई बैठक के बाद रूस, चीन और पाकिस्तान की ओर से जारी संयुक्त बयान में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के तौर पर रूस और चीन संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित सूची में से कुछ अफगानों को हटाने के प्रति अपने लचीले रुख को दोहराते हैं. तर्क था- काबुल और तालिबान के बीच शांतिपूर्ण वार्ता स्थापित करने के लिए ऐसे कदम जरूरी हैं. अब यदि रूस और चीन अपने इस रुख पर कायम रहते हैं और अमेरिका सुरक्षा परिषद में इनके फैसले के खिलाफ वीटो नहीं करता है, तो परिणाम यह होगा कि कुछ टॉप तालिबानी नेताओं का नाम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित सूची से हट जाएगा. जबकि अफगानिस्तान सरकार तालिबान के नये प्रमुख का नाम भी इस प्रतिबंधित सूची में डालने की मांग कर रही है.
यहां दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं. पहली; भारत को मॉस्को बैठक से दूर रखा जाना और दूसरा; भारत द्वारा शुरू से ही तालिबान को अफगानिस्तान में सबसे बड़ा खतरा मानना. डोनाल्ड ट्रंप की अफगानिस्तान के प्रति कैसी नीति रहेगी, अभी यह स्पष्ट नहीं है और इस बीच पाकिस्तान अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मजबूत करता जा रहा है. ये स्थितियां भारत के लिहाज से अफगान विषय को संजीदा बना देती हैं. दरअसल, अफगानिस्तान को लेकर इस त्रिकोण के सामने कुछ नये लक्ष्य हैं और उनके मद्देनजर ये अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति को एक अवसर के रूप में प्रयुक्त करना चाहते हैं. यह प्रश्न करना तर्कसंगत लगता है कि ट्रंप की विजय और दिसम्बर में अफगानिस्तान पर मॉस्को में सम्मेलन, क्या इन दोनों के बीच कोई कार्य-कारण संबंध है? कहीं वास्तव में ट्रंप पुतिन की छाया में अमेरिकी नीतियों का निर्धारण करने वाले तो नहीं हैं? क्या यह संभव हो सकता है कि अपनी ‘मॉस्को पीवोट’ नीति के तहत ट्रंप वाशिंगटन और मॉस्को को करीब लाकर मध्य-एशिया के जरिए नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद रख रहे हैं.
चूंकि, ट्रंप चीन को रोकने की रणनीति पर काम करना चाह रहे हैं. अत: सम्भव है कि रूस का काबुल मिशन इसी रणनीति का हिस्सा हो. चीन अपने अतिमहत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘वन बेल्ट वन रोड’ की सुरक्षा व उसे रणनीतिक आयाम देने के लिए भी अफगानिस्तान पर नियंत्रण और रूस से रणनीतिक गठबंधन चाहता है. यही वजह है कि उसने रूस के समक्ष चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर में शामिल होने का प्रस्ताव रखा है. कुल मिलाकर भारत के इस मत पर संशय नहीं होना चाहिए कि तालिबान पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी संगठन है और उनमें ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ का भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे क्षेत्र के स्थायित्व को खतरा पैदा हो सकता है.
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