लोस 2019 : अभी से जुट जाए प्रतिपक्ष

Last Updated 29 Mar 2017 05:12:23 AM IST

भाजपा ने पिछले लोक सभा चुनाव की तारीख से सात महीने पहले ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर दी थी. इस


लोस 2019 : अभी से जुट जाए प्रतिपक्ष

तरह पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को तैयारी का पर्याप्त अवसर दिया था. हालांकि महाघोटालों के शोर के बीच कांग्रेसनीत सरकार के खिलाफ पहले से ही माहौल बन रहा था. भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने तब देश को पहले से ही गरमा रखा था. इसके बावजूद सात महीने का समय मिला था मोदी को. पर अब कुछ प्रतिपक्षी नेताओं की यह राय बन रही है कि  2019 के लोक सभा चुनाव के लिए गैर भाजपा दलों को अगले छह महीनों के भीतर ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चयन का  काम कर लेना होगा.

2015 में बिहार के चुनाव के बाद प्रतिपक्ष का हौसला थोड़ा बढ़ा था. मगर  हाल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत से प्रतिपक्ष पस्तहिम्मत हो गया है. उसे एक बार फिर उत्साहित करने के लिए यह जरूरी है कि प्रतिपक्ष का कोई साझा उम्मीदवार हो जो  नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर देश को अपने पक्ष में अभी से गरमाने की कोशिश करे. प्रतिपक्षी उम्मीदवार अंतत: इस काम में  सफल होगा या नहीं, यह तो बाद की बात है, पर प्रतिपक्ष कोशिश तो कर ही सकता है.

एक नेता ने कहा कि यह प्रयास संगठित ढंग से होना चाहिए. बेहतर रिजल्ट की उम्मीद तभी की जा सकती है. भावी नेता को  प्रचार के लिए पर्याप्त समय मिलना चाहिए. क्योंकि केंद्र की मौजूदा सरकार अभी एक लोकप्रिय सरकार है. कुछ भावी लोकलुभावन कदमों के जरिए केंद्र सरकार खास कर भाजपा अपनी लोकप्रियता इस बीच और भी बढ़ा सकती है. लेकिन उसके साथ दिक्कत यह है कि उसके पास देश का 51 प्रतिशत वोट नहीं है.

कांग्रेस के पास भी इतने वोट कभी नहीं थे. कांग्रेस को 1984 के लोक सभा चुनाव में 49 प्रतिशत वोट मिले थे. प्रतिपक्षी वोट में बिखराव का लाभ पहले कांग्रेस और अब भाजपा को  मिलता रहा है. अब सवाल है कि प्रतिपक्षी दलों को यथासंभव साथ लाने की कोशिश की शुरुआत कब होगी? दलीय एकता के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवार के नाम पर सहमति हासिल करने के लिए भी प्रतिपक्ष को काफी प्रयास करने होंगे.

राजनीतिक हलकों में यह आशंका जाहिर की जा रही है.  प्रधानमंत्री पद के लिए गैर राजग दलों का कोई साझा उम्मीदवार तय करना कठिन जरूर है, पर असंभव नहीं है. यदि सचमुच  राजनीतिक और व्यक्तिगत साख वाला कोई उम्मीदवार तय हो पाया तो 2019 का मुकाबला दिलचस्प  हो सकता है. इस बीच उस उम्मीदवार को देश भ्रमण करके गैर राजग मतदाताओं में आई पस्तहिम्मती को तोड़ने में मदद मिल सकती है. इस काम में समय लगेगा.  संभव है कि इस बीच मोदी की सरकार एक-से-एक जनहितकारी फैसले करते हुए अपनी बढ़त बनाए रखने की कोशिश करे. महिला आरक्षण उन कामों में प्रमुख हो सकता है. यह एक मजबूत वोट बैंक बनाने वाला काम साबित हो सकता है.

उत्तर प्रदेश की हार के बाद सपा नेता राम गोपाल यादव ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है. उम्मीद है कि कुछ गैर राजग दल ऐसे आरोप लगाते रहेंगे. पर यदि केंद्र सरकार ने इस बीच महिला आरक्षण विधेयक पास करवा दिया तो राम गोपाल यादव जैसे लोगों के राजनीतिक वार खाली चले जाएंगे. यदि गैर राजग दलों का कोई साख वाला साझा उम्मीदवार तय होगा तो समय-समय पर उसके जरिए प्रामाणिक रूप से बातें लोगों तक जाएंगी. प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करने  में शायद इधर कुछ कठिनाइयां कम हुई हैं. उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे ने कम-से-कम तीन उम्मीदवारों को रास्ते से हटा दिया है.

आम लोग यही मानते हैं, चाहे उनके दल जो कहें. अखिलेश यादव और मायावती को अब भला प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन बनाएगा? कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसी ही समस्या है. उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे का विपरीत राजनीतिक असर राहुल गांधी पर भी पड़ा है.

अब तो कांग्रेस के ही मणि शंकर अययर भी  यह कह रहे हैं कि राहुल बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाएं, ताकि 2019 में मोदी का मुकाबला किया जा सके. कुछ कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी और पार्टी के कुछ अन्य नेता व्यक्तिगत बातचीत में यह कहते हैं कि राहुल गांधी को दूसरे दल के किसी बेहतर नेता के लिए अपना दावा छोड़ देना चाहिए. याद रहे कि बिहार विधान सभा में राजद के सर्वाधिक सदस्य हैं. पर मुख्यमंत्री जदयू से है.

पर सवाल है कि क्या राहुल इसके लिए तैयार होंगे?  हालांकि, यदि अभी से गैर भाजपा दल किसी  साख वाले नेता के नेतृत्व में मजबूत दलीय गठजोड़ नहीं बनाएंगे तो इस बीच ही गैर भाजपा प्रतिपक्ष के कुछ दल राजग की शरण में भी चले जा सकते हैं. क्योंकि प्रामाणिक गठबंधन के अभाव में वे अगले चुनाव में हार का खतरा मोल नहीं लेंगे. कई बार बड़े दल को दरकिनार करके अपेक्षाकृत छोटे दल के नेता को भी मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री बनाया जा चुका है. खुद कांग्रेस  कई बार अपने समर्थन से छोटे दल के नेता को प्रधान मंत्री बनाने को मजबूर हुई थी. कांग्रेस ने बारी-बारी से चरण सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी.देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल को अपने समर्थन से प्रधानमंत्री बनवाया था.

आपातकाल की पृष्ठभूमि में जब 1977 में लोक सभा का चुनाव होने वाला था तो प्रतिपक्षी दल आपस में विलय करके बड़ा दल बनाने के पक्ष में नहीं थे. पर जब जयप्रकाश नारायण ने कहा कि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हम अपना राजनीतिक दल खड़ा लेंगे. इस धमकी से डर कर चार दल मिल कर बेमन से एक हो गये. जनता पार्टी बनी.
जब प्रधानमंत्री बनाने की बात हुई तो ऐसे दल के नेता मोरारजी देसाई को बनाया गया, जिनका घटक संगठन कांग्रेस अपेक्षाकृत छोटा घटक था. अभी किसी दल के विलय की बात तो नहीं हो रही है, सिर्फ  गठजोड़ बनाने की बात हो रही है. जयप्रकाश नारायण ने मतदाताओं के बीच  प्रतिपक्षी दलों की  साख बढ़ाने के लिए ही विलयन कराया था. आज ऐसे प्रयास की अपेक्षाकृत अधिक जरूरत है.

सुरेंद्र किशोर
लेखक


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