ई-कचरा : मुसीबत भी लाए हैं हैंडसेट

Last Updated 29 Mar 2017 05:06:15 AM IST

मानव इतिहास की नजर से देखें तो दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या इंसानी आबादी से ज्यादा हो चुकी है.


ई-कचरा : मुसीबत भी लाए हैं हैंडसेट

अभी भारत में एक अरब से ज्यादा मोबाइल ग्राहक हैं. मोबाइल सेवाएं शुरू होने के 20 साल बाद भारत ने एक आंकड़ा पिछले साल जनवरी में पार किया था. हालांकि पड़ोसी चीन यह करिश्मा 2012 में ही कर चुका है, पर दुनिया में फिलहाल चीन और भारत ही दो ऐसे देश हैं, जहां एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं. देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी-बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 7 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है.

यह आंकड़ा इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) का है. ये आंकड़े एक तरफ आस्ति जगा रहे हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिंदगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है, जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-वेस्ट का. भारत जैसे देश की विशाल आबादी और फिर बाजार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे अनजाने मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है.

हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं, जिनसे समस्या का आभास होता है. जैसे वर्ष 2013 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है.

हम अभी यह कह कर संतोष जता सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है. यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीजें ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहीं. इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं, ताकि उनके समाजों का स्वास्थ्य इनसे खराब न हो. ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है.

मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते. सिर्फ  एक मोबाइल फोन की बैटरी अपने बूते 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है. इसके अलावा, एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं, और विषैले प्रभाव पैदा करते हैं. कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में शीशा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होती है. जल-जमीन यानी हमारे वातावरण में मौजूद ये खतरनाक रसायन कैंसर आदि कई गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं.

आधुनिक होते समाज के लिए यह इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ चिंता नहीं पैदा करता, यदि यह पर्यावरण में विघटित हो जाता. परंतु यह ई-कबाड़ चूंकि आसानी से विघटित नहीं होता है, इसलिए समूचे समूचे पर्यावरण पर घातक असर डालता है. इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाने वाली कंपनियां अपने उपभोक्ताओं से खराब हो चुके सामानों को वापस लेने की जहमत नहीं उठातीं क्योंकि ऐसा करना खर्चीला है, और सरकार की तरफ से इसे बाध्यकारी नहीं बनाया गया है. इसी तरह उपभोक्ता भी इन बातों को लेकर सजग नहीं है कि खराब थर्मामीटर से लेकर सीएफएल बल्ब और मोबाइल फोन आदि यों ही कबाड़ में फेंक देना कितना खतरनाक है. हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर न रह जाए, इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है, अन्यथा चंद पैसों की यह चाहत हमारे ही गले की फांस बन जाएगी.

अभिषेक कुमार
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment