अर्थव्यवस्था : सेंसेक्स में उछाल के मायने
2017 में कई पांच राज्यों में आए विधान सभा चुनाव के परिणाम यों तो राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा थे, पर इन परिणामों के ठीक बाद शेयर बाजार का बहुत तेजी से उछलना बहुत कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत देता है.
अर्थव्यवस्था : सेंसेक्स में उछाल के मायने |
गौरतलब है कि 11 मार्च, 2017 को विधान सभा चुनाव के परिणाम आए. इसके बाद होली की छुट्टी-14 मार्च को शेयर बाजार चुनाव-परिणाम आने के बाद पहली बार खुले और शेयर बाजार ने अपनी खुशी जाहिर की चुनाव परिणामों पर.
मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक सेंसेक्स करीब 500 बिंदु ऊपर गया, 29500 बिंदु के आसपास और नेशनल स्टाक एक्सचेंज का सूचकांक निफ्टी करीब 147 बिंदु ऊपर गया, करीब 9081 बिंदु पर. निफ्टी का 9000 बिंदु से ऊपर जाना खासा महत्त्वपूर्ण है. बाजार की चिंताएं ये थीं कि खास तौर पर अगर यूपी से बड़े राज्य में भाजपा की पिटाई होती, तो तमाम तरह की अनिश्चिताएं खड़ी हो जाएंगी. बाजार बिहार जैसी स्थिति को लेकर आशंकित था. जैसे बिहार के गठबंधन ने भाजपा गठबंधन को हराया था कि अगर वैसी ही स्थिति यूपी में पैदा हो जाती, बाजार में हाहाकार होता.
हाहाकार की वजह यह होती कि मोदी की राजनीति, मोदी की अर्थनीति पर सब पर सवाल उठ खड़े होते. मोदी की राजनीतिक स्थिति पर चोट आती कि वह अगले लोक सभा चुनाव में भाजपा की नैया पार करा पाएंगे कि नहीं. अर्थनीति को लेकर सवाल-तर्क उठते कि मोदी अंबानी-अडानी के हितों की रक्षा करते थे इसलिए यूपी जैसे बड़े राज्य और बड़े गरीब राज्य की जनता ने मोदी की नेतृत्व खारिज कर दिया. पर यूपी ने यह साफ किया कि मोदी राजनीति और आर्थिक नीतियों में निरंतरता बनाए रख सकते हैं. बाजार अनिश्चितता को बहुत नापसंद करता है. अच्छा या बुरा जो भी निश्चित हो जाए, तो बाजार उस पर प्रतिक्रिया जाहिर करके आगे चल निकलता है. यूपी समेत पांच राज्यों में भाजपा नेतृत्ववाले गठबंधन ने जीत हासिल करके संकेत दिया है कि वह आने वाले वक्त में अपनी नीतियों को ज्यादा निश्चितता से बना सकता है.
आर्थिक विमर्श की जानकारी रखने वाले थोड़े इस बात पर कनफ्यूज्ड हो सकते हैं कि एक ही बंदे की नीतियों को मुंबई के स्टॉक बाजार भी पसंद करे और गरीब भी पसंद करें, यह बात संभव कैसे हैं? मुंबई के स्टाक बाजार अमीरों के लिए हैं, गरीबों की समस्याएं अलग हैं, दोनों के हितों को लेकर चलनेवाली समग्र आर्थिक नीतियां नहीं बनाई जा सकतीं. यानी या तो गरीबों का भला या स्टाक बाजारों का भला करो, दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते, यह सोच अब कमजोर पड़ रही है. गहराई से देखने पर साफ यह होता है कि मसला बातों का नहीं है डिलीवरी का है. जमीन पर डिलीवरी क्या हो रही है. बातें, बातें, बातें कई सालों से सिर्फ बातें हो रही हैं.
‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर 1971 में यानी करीब पचास साल पहले इंदिरा गांधी जीती थीं, पर गरीबी हटाने की जरूरत अब भी महसूस होती है, तो इसका मतलब यह है कि ठोस कामकाज की डिलीवरी बहुत बड़ा मसला है. गरीब को राहत मिले तो समूची अर्थव्यवस्था को एक अलग तरह से बेहतरी हासिल होती है. गरीब की जेब में कुछ पैसे आ जाएं, कुछ जीवन स्तर सुधर जाए, तो तमाम वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है. नोटबंदी का जिक्र चुनाव से पहले ऐसे मुद्दे के तौर पर किया जा रहा था, जिसके बारे में आशंका थी कि यह भाजपा के परिणामों को चौपट कर देगा. राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव ने नोटबंदी से पैदा हुई समस्याओं को लगभग हर चुनावी सभा में उठाया था. पर मोदी यह राजनीतिक संदेश सफलतापूर्वक देने में कामयाब रहे कि नोटबंदी भ्रष्ट अमीरों के खिलाफ कार्रवाई है, जिसमें ईमानदार गरीबों ने मोदी का साथ दिया है. नोटबंदी मोदी की परेशानकारी योजना के तौर पर नहीं, अमीर बनाम गरीब के युद्ध में मोदी का औजार बनकर उभरी. इस चुनाव ने साफ किया है कि आर्थिक मसलों पर ठोस डिलीवरी से राजनीतिक परिणाम आते हैं.
‘उज्जवला’ यानी गैस सिलेंडर गरीब परिवारों में देने की योजना ने भाजपा को उन वगरे से वोट दिलाए हैं, जो वर्ग आम तौर पर भाजपा का वोटर वर्ग है नहीं. बातों के अलावा, यूपी में ‘उज्जवला योजना’ के करीब 52 लाख परिवारों को फायदा मिला है. मोदी इनके लिए हवाई नारा नहीं, ठोस हकीकत सिलेंडर की शक्ल में घर में मौजूद हैं. जनधन खातों के तीन करोड़ लाभार्थी यूपी में हैं. और 20,000 करोड़ रुपये मुद्रा योजना के तहत यूपी में दिया गया है. ये आंकड़े लगते आर्थिक आंकड़े हैं, पर ये हैं ठोस राजनीतिक आंकड़े. अर्थव्यवस्था के मुद्दे राजनीति के मसलों में तब्दील होते हैं. यह समझ 2017 के चुनाव ने दी है.
अमेठी की पांच सीटों में से 4 पर बीजेपी ने जीत दर्ज की. हार-जीत तो चलती रहती है पर इस बार यह देखने में आया कि कांग्रेस प्रत्याशियों को ऐसे सवालों का सामना करना पड़ा कि आखिर क्यों अमेठी में गांधी परिवार ने कोई औद्योगिक विकास, कोई रोजगार का इंतजाम नहीं किया?
रायबरेली में दो विधान सभा सीटें भाजपा ने जीतीं. इन सीटों पर हार के राजनीतिक मायने चाहे जो निकाले जाएं, इन सीटों पर कांग्रेस की हार के आर्थिक मायने ये हैं कि गांधी परिवार भी अगर कुछ ठोस विकास, कुछ ठोस सुविधाएं अपने इलाके में न दे पाएगा, तो अब उसे भी जवाब देना पड़ेगा. अमेठी में राहुल गांधी एक दशक से ज्यादा से सांसद हैं. बतौर सांसद राहुल गांधी मोदी से बहुत सीनियर हैं. और उन्हें अब विकास पर जवाब देना पड़ रहा है, यह बात इस चुनाव ने साफ की.
मोदी ने इन चुनाव में कहा कि जनता बदल गई है. कुछेक मुफ्त सिलेंडरों से चुनाव नहीं जीते जा सकते. नरेन्द्र मोदी दरअसल अब राजनीतिक तौर पर ऐसी स्थिति में हैं, जहां वह कड़े-से-कड़े फैसले ले सकते हैं. सरकारी बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों की बेहतरी के लिए मोदी सरकार कुछ ठोस और साहसिक फैसले लेगी, ऐसी शक्ति तो इन चुनाव ने मोदी सरकार को दे दी है, पर इसका कितना सार्थक इस्तेमाल आनेवाले वक्त में हो पाएगा, यह देखा जाना बाकी है.
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