वैश्विकी : मोदी की इस्राइल यात्रा के वैश्विक संदर्भ

Last Updated 12 Mar 2017 04:33:46 AM IST

विदेश नीति के यथार्थवादी दृष्टिकोण के प्रति विश्वास रखने वालों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जून में संभावित इस्राइल की राजकीय यात्रा से आश्चर्य नहीं हुआ होगा.


वैश्विकी : मोदी की इस्राइल यात्रा के वैश्विक संदर्भ

यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शात विरोध और संघर्ष को मान्यता देता है. मोदी इसी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जरिये ऐसे साधनों को विकसित करने की राह पर हैं, जिनसे उन्हें शक्ति-संघर्ष में सफलता हासिल हो सके. उनकी इस्रइल-यात्रा का यही परिप्रेक्ष्य है. मोदी के पीएम बनने के बाद कयास थे कि दोनों देशों के संबंध किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. 1992 में दोनों देशों के बीच पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए थे, उसके बाद नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो इस्रइल जा रहे हैं. इसलिए भारत समेत पूरी दुनिया की निगाह उनके दौरे पर रहेगी.

अभी जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे लगता है कि पश्चिम एशिया में मोदी की यात्रा इस्रइल तक ही सीमित रहेगी. अगर ऐसा हुआ तो फिलिस्तीन के प्रति भारत की जो पारंपरिक नीति रही है, उसके बदलाव के संकेत है. अब तक इस्रइल की राजकीय यात्राओं पर जाने वाले नेता फिलिस्तीन के संघर्ष के प्रति समर्थन जताने के लिए वहां अवश्य जाया करते थे. आजादी के बाद के 50 सालों तक भारत फिलिस्तीन को अपना समर्थन देता था और इस्रइल को आक्रामक देश मानता था. यही वजह रही है कि अमेरिका और यूरोप के दबाव में भारत ने इस्रइल को भले मान्यता दी, लेकिन फिलिस्तीन समस्या को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपना समर्थन देता रहता था.

श्रीमती इंदिरा गांधी और फिलिस्तीन मुक्ति मोर्चा के नेता यासर अराफात की दोस्ती जगजाहिर थी. लेकिन शीत युद्ध के बाद वैश्विक राजनीति का परिदृश्य भी बदला है. भारत के साथ अरब दुनिया की राजनीति में भी बदलाव आया है, जो उनके विदेश नीति को गहरे तक प्रभावित करती है. अरब दुनिया को लेकर भाजपा, आरएसएस और इस्रइल के नजरिये में बहुत समानताएं हैं. भारत-इस्रइल दोनों आक्रामक इस्लामी मतावलम्बियों से घिरे हैं. हटिंगटन के मुताबिक इस्लाम का यहूदियों और हिन्दुओं दोनों से संघर्ष है. अर्थात् दोनों को इस्लाम से खतरा है. अत: दोनों देशों की दोस्ती नैसर्गिक है. भाजपा-संघ का यह नजरिया इस्रइल के प्रति झुकाव पैदा करता है.

1991 में हुई मैड्रिड शांति वार्ता और अरब वसंत के बाद इस्रइल के प्रति मुस्लिम देशों का भी रुख बदलने लगा है. शिया-सुन्नी बहुल मुस्लिम देशों के बीच अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है. इनके बीच साफ तौर पर ध्रुवीकरण हो रहा है. एक ओर सऊदी अरब, कतर और अमीरात जैसे सुन्नी बहुल देश हैं, जो ईरान, सीरिया और लेबनान के छापामार संगठन हिज्जबुल्ला का इस क्षेत्र में प्रभाव को रोकने के लिए इस्रइल का समर्थन कर रहे हैं. ऐसे में भारत से यह अपेक्षा क्यों की जानी चाहिए कि वह इस्रइल की कीमत पर फिलिस्तीन का समर्थन करता रहे? वैसे भी फिलिस्तीन आंदोलन कमजोर पड़ता जा रहा है. इस बीच इस्रइल आतंकवाद पर कार्रवाई समेत अनेक क्षेत्रों में भारत के लिए उपयोगी सहयोगी साबित हुआ है. अत: फिलिस्तीन के प्रति सैद्धांतिक सहानुभूतिपूर्ण नीति की व्यावहारिक परख की जानी चाहिए. इसी के साथ इस्रइल से व्यावहारिक कूटनीतिक संबंध बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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