मदरसों के आधुनिकीकरण का सवाल

Last Updated 10 Jul 2015 01:07:08 AM IST

महाराष्ट्र सरकार ने एक विवादास्पद फैसले के तहत मदरसों तथा धार्मिक अध्ययन पर आधारित उन सभी शिक्षण संस्थानों को स्कूलों के तौर पर मान्यता देने से मना कर दिया है जो विज्ञान, गणित तथा सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा नहीं देते हैं.


मदरसों के आधुनिकीकरण का सवाल

राज्य में फिलहाल करीब 1900  मदरसे हैं, जिनमें लगभग ढाई लाख बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. महाराष्ट्र सरकार ने चार जुलाई से पूरे राज्य में उन बच्चों की गिनती कराने का भी फैसला लिया है जो प्रचलित स्कूल व्यवस्था में नहीं पढ़ते. गौरतलब है कि अब तक की सभी महाराष्ट्र सरकारों ने मदरसों को प्रचलित शिक्षा पद्धति के बाहर ही माना है. महाराष्ट्र में साल 2013 में तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मदरसा आधुनिकीकरण योजना शुरू की थी, तब भी उसने मदरसों को स्कूल नहीं माना था. पर वर्तमान सरकार ने जिस प्रकार से अचानक उन मदरसों को विश्वास में लिए बिना उन्हें ‘नॉन स्कूल’ घोषित कर दिया, उससे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में रोष की भावना प्रकट हुई है. 

 दरअसल, महाराष्ट्र सरकार के इस नए फैसले से जहां एक ओर वर्ष 2009 से केंद्र सरकार द्वारा चलाई जाने वाली मदरसों के आधुनिकीकरण की योजना ‘स्कीम टू प्रोवाइड क्वालिटी एजूकेशन इन मदरसाज’ (एसपीक्यूईएम) को खारिज करने की कोशिश की गई है, वहीं दूसरी ओर सदियों से चली आ रही मदरसों और संस्कृत पाठशालाओं में दी जाने वाली शिक्षा पद्धतियों पर भी नए सवाल उठा  दिए गए हैं. महाराष्ट्र सरकार के अनुसार यह सब कुछ ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून के तहत किया जा रहा है. मुस्लिम संगठनों की ओर से अब महाराष्ट्र सरकार से यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या उसके द्वारा ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून के तहत उन वैदिक और संस्कृत पाठशालाओं की भी स्कूल के रूप में मान्यता रद्द कर दी जाएगी जो विज्ञान, गणित तथा सामाजिक विज्ञान की शिक्षा नहीं देती हैं या इनके लिए दूसरे मापदंड अपनाए जाएंगे. हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अधिकारी ने सफाई दी है कि मदरसों की तरह वैदिक और संस्कृत पाठशालाएं भी ‘नॉन स्कूल’ के अंतर्गत ही आती हैं.

देश की मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था जब सरकारी स्कूलों की बदहाली, पब्लिक स्कूलों के बढ़ते वर्चस्व और फर्जी शिक्षकों के घोटालों से संत्रस्त हो, तो ऐसे समय में मदरसों से जुड़ा फैसला विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता है. विडंबना यह भी है कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा यह फैसला राजनीतिक धरातल पर लिया गया है और शिक्षा आयोगों की सभी पुरानी सिफारिशों और मदरसों के बारे में इस्लामी संगठनों द्वारा आम सहमति से स्वीकार्य शिक्षा मूल्यों को भी दरकिनार किया गया है.

मुस्लिम धर्मगुरुओं का एक वर्ग मानता आया है कि मदरसों का मकसद इस्लाम की शिक्षा-दीक्षा एवं विशेषज्ञता हासिल करना है. इसलिए आधुनिक शिक्षा हासिल करने वालों और ‘दीनी’ यानी मदरसा शिक्षा हासिल करने वालों के बीच मतभेद की स्थिति मदरसा आधुनिकीकरण की योजना को जटिल बनाए हुए है. हालांकि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या पूरे देश में कितनी है, इसका कोई प्रामाणिक सव्रे अब तक नहीं किया गया है. किंतु सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला है कि 96 फीसद मुस्लिम बच्चे आधुनिक शिक्षा ग्रहण करते हैं और केवल चार फीसद मदरसों में जाते हैं. सच्चर कमेटी ने उन्हें भी आधुनिक शिक्षा दिए जाने की सिफारिश की है. राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों के विकास और उनकी उन्नति हेतु प्रधानमंत्री के 15-सूत्रीय कार्यक्रम में मदरसा आधुनिकीकरण की योजना भी शामिल की गई है. इसकी वजह से अब मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा का प्रचलन बढ़ता जा रहा है. मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोग अब अपने बच्चों के समुचित व्यक्तित्व विकास के लिए ‘दीनी’ और ‘दुनियावी’ दोनों प्रकार की तालीम को जरूरी मानने लगे हैं.

गौरतलब है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा संचालित मदरसों के आधुनिकीकरण और उनमें गुणवत्ता लाने वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए एक राष्ट्रीय योजना ‘एसपीक्यूईएम’ पूरे देश में 2009 से लागू है. ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून बनने से पहले ही यह योजना अस्तित्व में आ गई थी. इस समय 17 राज्य सरकारों के नेतृत्व में लगभग दस हजार मदरसे इस केंद्रीय की योजना से लाभ उठा रहे हैं. इसमें महाराष्ट्र सरकार भी शामिल है. इस योजना के माध्यम से जहां एक ओर मदरसों के शैक्षिक पाठ्यक्रम में विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान, अंग्रेजी तथा हिंदी जैसे सभी विषयों को पढ़ाने का प्रावधान रखा गया है ताकि छात्र सार्वजनिक जीवन की प्रतियोगिता में सरकारी तथा पब्लिक स्कूलों के छात्रों की बराबरी कर सके, वहीं दूसरी ओर यहां दी जाने वाली धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा छात्रों को चरित्रवान तथा धर्म और समाज के प्रति समर्पणशील और जवाबदेह भी बनाती है. केंद्र सरकार इस योजना के तहत माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक चरण के मदरसों को विज्ञान प्रयोगशाला, कंप्यूटर प्रयोगशाला और पुस्तकालयों आदि के लिए अनुदान भी देती है. इस योजना की खासियत यह है कि इसमें औपचारिक शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रत्यायित केंद्र के रूप में राष्ट्रीय मुक्त अध्ययन संस्थान (एनआईओएस) के साथ मदरसों को जोड़ने का प्रावधान रखा गया है.

‘एसपीक्यूईएम’ की ओर से जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार की मदरसा आधुनिकीकरण योजना से लाभ उठाने वाले अनेक ऐसे मदरसे हैं जो आज अपने क्षेत्र के सरकारी स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं और कई तो पब्लिक स्कूलों की बराबरी तक कर रहे हैं. जहां तक मदरसों में शिक्षा पाने वाले बच्चों की सामाजिक और आथिर्क पृष्ठभूमि का सवाल है,  कमजोर और पिछड़े वगरे के बच्चों का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी इन मदरसों में ही स्कूली शिक्षा पा रहा है. उत्तर प्रदेश के मदरसों के सव्रेक्षण से जुड़ी एक मूल्यांकन रिपोर्ट बताती है कि वहां दूरदराज के इलाकों में कुप्रबंधन के कारण सरकारी स्कूलों का माहौल इतना खराब है कि लोग सरकारी वजीफे का लालच छोड़कर भी मदरसों की शिक्षा को बेहतर मानते हैं. इन सरकारी स्कूलों में केवल खाना खिलाया जाता है. बच्चों को पढ़ाने के लिए वहां न कंप्यूटर प्रयोगशाला होती है और न ही ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून के तहत विज्ञान, गणित तथा सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त शिक्षक होते हैं.

वर्तमान में मदरसों के आधुनिकीकरण की योजनाओं को चुस्त-दुरुस्त करने तथा इनकी आथिर्क दशा और शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार लाने के मकसद से ‘एसपीक्यूईएम’ ने देश के जाने-माने मुस्लिम बुद्धिजीवियों की देखरेख और ‘डॉ. केआर नारायणन दलित तथा अल्पसंख्यक अध्ययन केंद्र’ के डायरेक्टर प्रो. अज्रा रजाक के निर्देशन में इस प्रोजेक्ट की एक मूल्यांकन रिपोर्ट भी तैयार की है. इस कमेटी ने दिसम्बर 2013 में समूचे देश के मदरसों का निरीक्षण तथा सर्वेक्षण करते हुए लोकतांत्रिक पद्धति से मदरसों की समस्याओं से संवाद किया है और मदरसों की आथिर्क दशा और शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिश और सुझाव भी दिए हैं. मदरसों को सरकार द्वारा समय पर सहायता राशि प्रदान करना, उनकी बुनियादी सुविधाओं में सुधार लाना तथा वहां पढ़ाने वाले प्रशिक्षित शिक्षकों को वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन देने का प्रावधान करना इत्यादि प्रमुख सिफारिशें हैं. यदि महाराष्ट्र और अन्य राज्यों की सरकारें इन सिफारिशों पर अमल करें तो देश के समस्त मदरसों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है.

मोहन चंद तिवारी
लेखक


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