वामपंथ और तीसरा विकल्प
इस समय विशाखापट्टनम में चल रही माकपा की 21वीं राष्ट्रीय कांग्रेस पर लोगों की नजर खासकर इसलिए है कि वहां सिर्फ नेतृत्व-परिवर्तन होगा या नीति-परिवर्तन भी?
वामपंथ और तीसरा विकल्प |
हाल ही में पुड्डूचेरी में संपन्न भाकपा के महाधिवेशन में लगभग वही समस्याएं थीं, जो माकपा के सामने हैं. कम्युनिस्ट पार्टियों के सम्मेलनों से जनसाधारण में कोई आशा-उत्साह नहीं है. किंतु राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि अगले कुछ वर्षो में राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण किस दिशा में होगा और उसमें कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका कैसी और कितनी होगी.
एक तो भाकपा की तरह माकपा भी ‘अपनी स्वतंत्र छवि पुनस्र्थापित’ करने के लिए प्रयत्नशील है; दूसरे क्षेत्रीय दलों, विशेषत: जनता परिवार के विलय से उत्पन्न माहौल में वह अपनी नई भूमिका की खोज में भी है. यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि अपनी ‘राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन’ की समीक्षा में माकपा ने स्वीकार किया है, ‘क्षेत्रीय पार्टयिां नवउदार नीतियां अंगीकार करती जा रही हैं.’ यह तथ्य उत्तर और दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में समान रूप से लागू होता है.
इतना ही नहीं, क्षेत्रीय पार्टियां विश्व-पूंजी के प्रति वही रुख अपनाती हैं जो कांग्रेस-भाजपा का है. वे ग्रामीण क्षेत्र के धनिकों और नवधनिकों का प्रतिनिधित्व भी करती हैं. इस स्थिति में उन्हें किसी कार्यक्रम के आधार पर जोड़ना तभी संभव है जब माकपा या वामपंथ का स्वतंत्र जनाधार हो जिसके बिना क्षेत्रीय पार्टियों के हित न सिद्ध होते हों. उक्त समीक्षा में माकपा ने यथार्थवादी होकर स्वीकार किया है कि उसका स्वतंत्र जनाधार कमजोर हुआ है. क्या यह कहना चाहिए कि क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में आंख खुली, लेकिन इतनी देर से कि भूलसुधार एक टेढ़ी खीर लगता है. हालांकि अपने अधिवेशन में माकपा ने वाममोर्चे की पार्टियों (भाकपा, फॉर्वड ब्लॉक, आरएसपी) के अलावा भाकपा-माले और एसयूसीआई को भी आमंत्रित किया. लेकिन इन सबके बीच किसी नीति या कार्यक्रम की साझेदारी शायद ही हो. इसलिए यह ‘वामपंथी’ मंच व्यापक जनतांत्रिक एकता का आधार बन सकेगा, इसमें संदेह है.
सच्चाई यह है कि 2005 में प्रकाश करात के महासचिव बनने के बाद माकपा की स्वतंत्र छवि का ह्रास हुआ है, गुटबाजी तेज हुई है, जहां जनाधार था वहां भी पार्टी सिकुड़ गई है. यही कारण है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हिंदी क्षेत्र हो या दक्षिण भारत, कहीं भी उसका कोई कहने-सुनने लायक मोर्चा नहीं बना. उसके प्रयास को इतनी असफलता पहले कभी नहीं मिली थी. सबसे जरूरी है हिंदी क्षेत्र में पार्टी का अस्तित्व. प्रकाश करात के कार्यकाल में हिंदी क्षेत्र के प्रति विशेष उपेक्षा का परिचय मिला. 2005 के दिल्ली सम्मेलन से पहले ‘हिंदी क्षेत्र: तकलीफें और मुक्ति के रास्ते’ पहचानने के लिए माकपा ने एक हफ्ते का विचार-विमर्श रखा था. उसके अनुभवों से लाभ उठाने के बदले प्रकाश करात के नेतृत्व ने पूरे प्रसंग को ठंडे बस्ते में डाल दिया. हिंदी क्षेत्र की उपेक्षा का परिणाम है कि माकपा के पास राष्ट्रीय स्तर का कोई लोकप्रिय नेता नहीं है.
हिंदी क्षेत्र में जनाधार के बिना वामपंथ राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने की बात सोच भी नहीं सकता. फिर भी, एक जिम्मेदार पार्टी के रूप में माकपा, भाजपा के विकल्प की संभावना खोज रही है. इसके लिए हिंदी क्षेत्र में एकीकृत जनता-परिवार से मोर्चा बनाने की जरूरत होगी. खुद आगामी महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा है कि ऐसा मोर्चा बनाने की संभावना खोजी जाएगी. लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि अपनी स्वतंत्र ताकत के बिना वामपंथ या तो क्षेत्रीय निहित स्वाथरे का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों का पिछलगुआ बनकर रह जाएगा या उसका जनाधार खिसककर क्षेत्रीय पार्टियों में समा जाएगा. साथ ही, इस तरह के असंतुलित मोर्चे से आर्थिक नीति के मामले में वामपंथ और दक्षिणपंथ का अंतर धुंधला होता है और सांप्रदायिकता-विरोधी मंच जनता की नजर में सत्ताप्रेमी गठजोड़ बनकर रह जाता है.
संयोग की बात नहीं है कि जनता परिवार के छह गुटों के एकीकरण का संदेश देते हुए लालू प्रसाद यादव ने केवल भाजपा को रोकने की बात कही, किसी सकारात्मक कार्यक्रम पर आधारित एकता का मुद्दा नहीं उठाया. जनता परिवार को बुनियादी और वास्तविक मुद्दों से विशेष सरोकार नहीं दिखाई देता. इससे पता चलता है कि यह एकीकरण किसी सार्थक उद्देश्य से न होकर केवल सत्ता के लिए है. सच्चाई यह है कि जनता परिवार अधिकांशत: दगे कारतूसों की बारात है, जिसका आज की बदली हुई राजनीति से ज्यादा संबंध नहीं है. न सिर्फ राजनीति बदली है बल्कि राजनीति के प्रति लोगों का, विशेषत: युवाओं का रु ख भी बदला है. अब भाजपा में भी आडवाणी नहीं, मोदी हृदय-सम्राट हैं. बाहर केजरीवाल युवाओं के आकषर्ण हैं.
इन समस्याओं पर विचार करना माकपा के लिए अत्यंत आवश्यक है. एक तो उसके अपने अस्तित्व और विकास के लिए, दूसरे देश की राजनीति में जनोन्मुख परिवर्तन के लिए. किंतु इसका आभास नहीं होता. 1978 में भाकपा की भटिंडा कांग्रेस ने आपातकाल के समर्थन और विरोध की बहस में समझौतावादी रुख अपनाया, 2015 में माकपा की विशाखापटट्नम कांग्रेस भी वही कर रही है-करात की मान्यता है कि अब तक की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन गलत है, येचुरी की राय है कि नीति सही है, उसका क्रियान्वयन दोषपूर्ण है. कांग्रेस में मंजूरी के लिए नेतृत्व की ओर से पेश दस्तावेज में दोनों का मिश्रण है.
उल्लेखनीय है कि 10वीं कांग्रेस में माकपा ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया था, ‘मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी की स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियां तथा उनका लगातार मजबूत होते जाना, वामपंथी एवं जनवादी मोर्चे के गठन के लिए जरूरी है.’ तब से अब तक माकपा इसी नीति पर चलती आई है. करात से पहले, 2004 के चुनाव में, माकपा और वामपंथ अपने सर्वोच्च शिखर पर थे. तब यह नीति सही थी. करात के नेतृत्व में विकास कर के पार्टी 55 सांसदों से 12 पर आ गई.
अब यह नीति गलत हो गई. इस दौरान गुटबाजी के कारण केरल की सरकार गई. गलत तत्वों के कारण बंगाल गया. हिंदी प्रदेशों में जो थोड़ी-बहुत ताकत थी, वह केंद्रीय नेतृत्व के नकारात्मक रु ख के कारण समाप्त हो गई. ऐसी हालत में कौन-सा मोर्चा बनेगा? 16वीं कांग्रेस (1998) में ‘तीसरे विकल्प’ का नारा दिया गया, जो कार्यक्रम-आधारित होगा. लेकिन 2005 में 18वीं कांग्रेस तक क्षेत्रीय ‘धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी पार्टियों’ को न्यूनतम कार्यक्रम पर एकजुट करने की मुश्किलें समझ में आ गई थीं. इस समझ के पहले ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा चुका था जिसने इन पार्टियों से माकपा के अलगाव में बड़ी भूमिका निभाई.
यदि देश की भावी राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी सचमुच निभानी है तो माकपा को अपनी असफलता के कारणों को दूर करना पड़ेगा. नेतृत्व परिवर्तन अपनी जगह, लेकिन जनता से अलगाव मिटाने के लिए जनता परिवार की तरह नकारात्मक नारा न देकर सकारात्मक कार्यक्रम पर चलकर आंदोलन खड़ा करना होगा. संसदीय भटकाव से बचते हुए संसदीय सफलता का रास्ता जनांदोलनों से ही जाता है- कम्युनिस्टों की इस सीख से आम आदमी पार्टी ने फायदा उठाया तो माकपा क्यों नहीं उठा सकती!
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
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