नरसंहार के गुनाहगार और बेबस कानून
बिहार के बहुचर्चित बथानी टोला, नगरी, लक्ष्मणपुर बाथे और मियांपुर जनसंहारों के बाद अब शंकर बिगहा नरसंहार मामले के भी सभी चौबीस आरोपियों को अदालत ने बरी कर दिया है.
नरसंहार के गुनाहगार और बेबस कानून |
बरी करने की वही एक वजह, पुलिस अपराधियों के खिलाफ कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाई. जहानाबाद जिले की एक स्थानीय अदालत में बीते 15 साल से चल रहे इस मामले में पुलिस की ओर से पेश ज्यादातर गवाहों ने आरोपियों को पहचानने से साफ इंकार करते हुए अदालत में एक ही बात कही- अंधेरा होने की वजह से वे किसी को पहचान नहीं पाए. लिहाजा अदालत ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए रिहा कर दिया. अगर स्थानीय पुलिस और सरकार इस मामले में जरा भी गंभीर रहते, तो नरसंहार के अभियुक्त बरी नहीं हो पाते और पीड़ितों को इंसाफ मिलता.
गौरतलब है कि 25 जनवरी, 1999 की रात हथियारबंद लोगों ने जहानाबाद जिले के शंकर बिगहा गांव पर हमला कर दलित और अति पिछड़ी जातियों के 23 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. गोलीबारी से 14 लोग जख्मी भी हुए थे. घटना के एक चश्मदीद के बयान पर रणवीर सेना के प्रमुख समेत 24 लोगों के खिलाफ मेहंदिया थाने में प्राथमिकी दर्ज की गई. मामले की सीआईडी जांच भी हुई. जांच के बाद 29 अभियुक्तों के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल किया गया. पीड़ित समुदाय और सूबे की प्रमुख विपक्षी पार्टियों के दवाब में पुलिस ने उस वक्त आरोपियों की गिरफ्तारी भी की, लेकिन बाद में आरोपी एक के बाद एक जमानत पर रिहा होते चले गए. वहीं दूसरी तरफ अदालत में मामला कछुआगति से घिसटता रहा. पूरे पंद्रह साल बाद, अब जाकर अदालत ने अपना आखिरी फैसला सुनाया है. वह भी आरोपियों के पक्ष में.
यह पहली बार नहीं है जब बिहार के खूनी जनसंहारों के आरोपी सबूतों के अभाव में अदालत से बरी हुए हों, बल्कि इससे पहले भी बथानी टोला, नगरी, लक्ष्मणपुर बाथे और मियांपुर जनसंहार मामलों में भी ठीक यही स्थिति रही. अलबत्ता शकर बिगहा मामला, पूर्व के इन मामलों से इस तरह अलग है कि इस जनसंहार के आरोपी स्थानीय अदालत में ही बरी हो गए, जबकि बाकी मामलों में आरोपियों को हाईकोर्ट ने राहत दी थी. निचली अदालतों में दोषी साबित होने के बाद, आरोपी हाईकोर्ट से रिहा हुए थे, जबकि इन आरोपियों को निचली अदालतों ने उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सख्त सजा सुनाई थी. साल 1996 से 2000 के बीच यानी पांच साल के भीतर बिहार में हुए इन हत्याकांडों में 140 से ज्यादा निर्दोष लोग मारे गए थे.
शंकर बिगहा जनसंहार, बिहार में बीती सदी के आखिरी दशक में शुरू हुई जातिगत और वर्गीय वर्चस्व की लड़ाई का खौफनाक नतीजा था. लड़ाई में एक तरफ अगड़ी व दबंग जाति के लोग थे जो बरसों से समाज में अपना वर्चस्व कायम किए हुए थे; तो वहीं दूसरी ओर वह जातियां थीं जो बरसों के उत्पीड़न और शोषण के बाद अपने हक की बात करने लगी थीं. जाहिर है कि राज्य में जो लड़ाई वर्गीय हितों की थी, उसे राजनीतिज्ञों ने जातीय युद्ध में तब्दील कर दिया. जमींदारों व सामंतों के खिलाफ, जब दलितों ने संगठित होकर आंदोलन करना शुरू कर दिया, तो जवाब में जमींदारों और सामंतों की हिमायती रणवीर सेना ने दलितों पर जुल्म ढाने शुरू कर दिए.
दलितों पर जुल्म के जवाब में रणवीर सेना के बरक्स माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी खड़ा हो गया. एमसीसी ने कमजोर और दलित जातियों के नाम पर अपनी सियासत तेज कर दी. उसके बाद मध्य बिहार में जातीय युद्ध का दौर शुरू हुआ. वर्चस्व की इस लड़ाई में सैकड़ों बेगुनाह लोग मारे गए. संघर्ष इतना बढ़ा कि तत्कालीन बिहार सरकार को ऐसे संगठनों पर पाबंदी तक लगानी पड़ी. बावजूद, अप्रत्यक्ष रूप से इन दोनों ही संगठनों को नेता शह देते रहे. राज्य में लगभग एक दशक तक लगातार दोनों तरफ से कानून को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर खून-खराबा किया गया और सरकार तमाशाई बनी रही. जब इस खूनखराबे की आंच सत्ता तक पहुंची, तब जाकर सरकार इन संगठनों के जानिब सख्त हुई.
तत्कालीन राजद सरकार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने, रणवीर सेना के सियासी संपर्कों की तहकीकात करने और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार समेत राज्य में दीगर नरसंहारों की जांच के लिए अमीरदास आयोग का गठन किया. आयोग ने अपनी तहकीकात के दौरान जो शुरुआती रुझान दिए, वे काफी चौंकाने वाले थे. आयोग की आखिरी रिपोर्ट, निजी सेनाओं और उनके सियासी सरपरस्तों के बारे में और भी ज्यादा चौंकाने वाले खुलासे करती, इससे पहले आयोग को भंग कर दिया गया. जाहिर है कि राज्य सरकार के इस अप्रत्याशित कदम से बिहार के कई चर्चित राजनीतिक चेहरे बेनकाब होने से बच गए. आयोग भंग होने से उन्हें अभयदान मिल गया. आयोग को भंग करने की जो भी वजह जिम्मेदार रही हो, सरकार की नीयत पर इसलिए भी सवाल उठते हैं कि इन मामलों की तहकीकात के लिए उसने दूसरे आयोग का गठन नहीं किया.
शंकर बिगहा मामले में जहानाबाद की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद, बिहार सरकार अब कह रही है कि वह फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती देगी और इस मामले में फरियादियों को इंसाफ जरूर मिलगा, जनसंहार के दोषी सजा से बच नहीं पाएंगे. यानी सरकार अब वही पुराना नाटक एक बार फिर कर रही है, जो इस तरह के दीगर मामलों में फैसला आने के बाद पहले भी कर चुकी है. सच बात तो यह है कि बिहार की मौजूदा सरकार हो या फिर पूर्ववर्ती सरकारें, किसी ने भी कभी यह कोशिश नहीं की कि पीड़ितों को इंसाफ मिले. अगर सरकारें ईमानदार कोशिशें करतीं, तो दोषियों को सजा जरूर मिलती. राज्य में इतने बड़े-बड़े जनसंहार हुए, लेकिन दोषी कोई नहीं. इंसाफ का इससे ज्यादा मखौल और क्या हो सकता है? सवाल अकेले सरकार और हमारी न्याय प्रणाली पर ही खड़े नहीं होते, बल्कि राज्य पुलिस की कार्यप्रणाली भी सवालों के दायरे में है.
शंकर बिगहा मामले को उठाकर देखें या फिर लक्ष्मण बाथे समेत तमाम इस तरह के दीगर मामलों को, इनमें एक बात समान है- राज्य पुलिस ने इन सभी मामलों में घोर लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना बर्ताव किया. यह महज इत्तेफाक नहीं है कि पुलिस को नरसंहार मामलों में बार-बार सबूत नहीं मिल पा रहे हैं. यदि कोई सबूत या चश्मदीद गवाह होता भी है, तो वह अदालत में अपने बयानों से पलट जाता है. जाहिर है कि गवाहों पर कहीं न कहीं कोई दवाब रहता है, जिसके चलते वे अदालत में टूट जाते हैं. यानी यहां भी बिहार पुलिस, गवाहों को सुरक्षा देने में पूरी तरह से नाकाम रही. यदि पुलिस ठीक ढंग से काम करती, तो इन जनसंहारों के दोषियों को बचने का जरा भी मौका नहीं मिलता और वे अपने किए की सजा जरूर पाते.
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