परंपरा और आधुनिकता में सामंजस्य जरूरी
कोहरे के कारण दुर्घटनाएं होती हैं. घायल और मारे गए लोगों की संख्या के विवरण कोहरा को कोहराम बनाते हैं. कोहरे पर काव्य भी रचे जाते हैं.
![]() हृदयनारायण दीक्षित, लेखक |
ऐसे साहित्य में हताशा, निराशा ही जगह पाते हैं. लेकिन कोहरा स्थाई स्थिति नहीं है. सूर्य स्थाई है. समाजचेता का उत्तरदायित्व कोहरे का अस्थायित्व बताना और सूर्य तेजस के सतत प्रवाह का विवरण देना है. निराशा, हताशा नहीं; आशा और उत्साह का वातावरण बनाना है. जीवन के प्रति पराजय का नहीं उल्लास का भाव भरना है. लेकिन वातावरण निराशापूर्ण है.
समाज के प्रति निराशा का भाव लगातार बढ़ा है. ऐसे में प्रकृति सृष्टि के प्रति ‘श्रद्धा’ भाव को पुष्ट करना जरूरी है. श्रद्धा अंग्रेजी के ‘फेथ’ का अनुवाद नहीं है. फेथ पंथिक विश्वास है और श्रद्धा देखे, जांचे, परखे सत्य के प्रति निष्ठा. विद्वानों ने श्रद्धा को श्रत् धातु से निर्मित बताया है. संस्कृत श्रत् का अर्थ है सत्य. सत्य को पूरे प्राणों से मानना ही श्रद्धा है.
श्रद्धा प्रत्यक्ष में एक मनोभाव जान पड़ती है. लेकिन ऋग्वेद में ‘श्रद्धा’ मनोभाव नहीं है. ऋग्वेद में वे एक देवता हैं. श्रद्धा का उल्टा ‘संशय’ होगा. संशय ज्ञान यात्रा में सहायक है. संशय को दूर करने के लिए तर्क, प्रतितर्क, आचार्य और विज्ञान के उपकरण हैं. ये उपकरण महत्वपूर्ण हैं. क्या इन उपकरणों पर भी संशय किया जा सकता है? शायद नहीं. बेशक इनके अलावा भी अन्य उपकरण हो सकते हैं.
भारत में आस्तिक और नास्तिक की कसौटी मजेदार है. यहां ईश्वर न मानने वाले भी आस्तिक हैं. भारत के दो प्रमुख दर्शन सांख्य व वैशेषिक निरीरवादी है. भारत की परंपरा में वेद के प्रति निष्ठा ही आस्तिकता है और वेद से इनकार नास्तिकता. स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि वेद वचनों के प्रति निष्ठा सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्यों है? ऋग्वेद दुनिया की प्राचीनतम शब्द अनुभूति है. वेद भारतीय चिंतन दर्शन का काव्य हैं. किसी एक देवदूत, मनीषी या विद्वान की घोषणा नहीं हैं. वे लगभग सात-आठ सौ ऋषियों की अनुभूतियां हैं. भिन्न-भिन्न विचार हैं. यहां मानने पर नहीं जानने पर ही जोर है. कोई कह सकता है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में हजारों बरस प्राचीन वैदिक संदेशों की उपयोगिता क्या है? आज की चुनौतियां भिन्न हैं.
वैदिक समाज की भिन्न थीं. चुनौतियां बेशक भिन्न हैं लेकिन आशा, निराशा के घनत्व में मौलिक अंतर हैं. वैदिक समाज आनंदमगन और मधुमय है. सत्य अभीप्सु भौतिक जीवन इस समाज की विशेषता है. जीवन जगत के प्रति गहन आशा और गाढ़ा उल्लास है. वेद मंत्र उत्साह और उल्लास जगाते हैं. आधुनिक काल निराशी हैं. तमाम उपलब्धियों के बावजूद जीवन में सृजनात्मक कृत्य नहीं हैं. पुलक और नृत्य भी नहीं है. मन तेज रफ्तार है लेकिन मन छंद की गति मंद है.
प्राचीन साहित्य का यही उपयोग है. पाणिनि, कौटिल्य, चरक, पतंजलि, भरतमुनि आदि के विपुल साहित्य में कहीं कोई अंधविश्वास नहीं. चरक संहिता में तो आत्मा को भी द्रव्य कहा गया है. पतंजलि के योगसूत्र उत्कृष्ट मानव विज्ञान की श्रेणी में प्रथमा हैं. भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का उद्देश्य लोकजीवन को आनंदित करना है. पाणिनि ने शब्द के अल्पतम घटक तक भाषा का विवेचन किया है. महाभारत-रामायण विश्व प्रतिष्ठ महाकाव्य हैं.
पुराण अपने ढंग के इतिहास और मजेदार काव्य कौशल से भरे-पूरे हैं. मूलभूत प्रश्न यही है कि भारत के निकट अतीत में ऐसा विचारशील, आनंदमगन, समाज और लोक था, तो ऐसी विपुल दार्शनिक, वैज्ञानिक और खोजी परंपरा के बावजूद आधुनिक समाज भी आनंदमगन क्यों नहीं हो सकता? बेशक हम अतीत की ओर नहीं लौट सकते. लेकिन विराट परंपरा की पूंजी को छोड़ना कहां का न्याय है?
परंपरा की पूंजी में कागज के नोट नहीं, स्वर्णमुद्राएं हैं. इस पूंजी को आधुनिक बनाते हुए आशा और उमंग का जीवन पाया जा सकता है. भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है. आधुनिक चिंतक-विचारक प्रतिष्ठित हैं. लेकिन अधिकांश के शब्द प्रबोधन आशा नहीं जगाते. जीवन के प्रति आस्तिकता, श्रद्धा और आशा के भाव जरूरी हैं. चिंतक-विचारक अपनी प्रतिभा का प्रयोग आशा, उत्साह और उल्लास देने के लिए करते हैं तभी मानव कल्याण होता है.
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