शोषण के विरुद्ध क्रांति के वाहक भगत-पाश
तेईस मार्च शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहीदी दिवस है.
शोषण के विरुद्ध क्रांति के वाहक भगत-पाश |
जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह ‘पाश’ आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने. यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीदी दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं लेकिन इनके उद्देश्य व विचारों की एकता संयोग नहीं है. यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है. यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है.
जो लोग भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों से थोड़ा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि उन्होंने एक ऐसे भारतीय समाज का सपना देखा था जो दमन, अत्याचार, शोषण व अन्याय जैसे मानव विरोधी मूल्यों से सर्वथा मुक्त हो तथा जहां सत्ता मजदूरों-किसानों के हाथों में हो. भगत सिंह के विचारों की रोशनी में देखें तो 15 अगस्त 1947 की आजादी की लड़ाई को जारी रखने तथा पूरी करने के लिए वे वैचारिक आवेग प्रदान करते हैं. भगत सिंह ने बार-बार स्पष्ट किया था कि आजादी से उनका मतलब ब्रिटिश सत्ता की जगह देशी सामन्तों व पूंजीपतियों की सत्ता नहीं, बल्कि शोषण-उत्पीड़न से करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों की आजादी तथा मेहनतकश जनता के हाथों में वास्तविक सत्ता होना है. भगत सिंह ने ‘समाजवाद की बुनियाद पर समाज निर्माण करने’ तथा ‘मनुष्य के हाथों मनुष्य का कौमों के हाथों कौमों का शोषण समाप्त करने’ के लिए क्रांति का आह्वान किया था. लेकिन अफसोस कि भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा.
भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्ष और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुड़े मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है. आज हालत और भी बदतर है. कल जो राजनीति त्याग व सेवा का कार्य था, आज मुनाफे का धंधा है. देश नई गुलामी के जाल में फंस चुका है. हम देखते हैं कि सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. भारत के शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में ही नहीं, संस्कृति व साहित्य में भी होती है. इस दौर में पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में नये पीढ़ी के कवियों ने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया. अवतार सिंह पाश इन्हीं की अगली पांत में थे.
उनकी पहली कविता 1967 में छपी थी. अमरजीत चंदन के संपादन में भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था. उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था. पाश का गांव तथा इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था. उन्होंने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके ‘जुर्म’ में गिरफ्तार हुए. करीब दो वर्षों तक जेल में रहकर सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए उन्होंने ढेरों कविताएं लिखीं. वहीं रहते उनका पहला कविता संग्रह ‘लोककथा’ प्रकाशित हुआ जिसने पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी.
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने ‘सिआड’ नाम की साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की. पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन बिखरने लगा था. साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था. ऐसे में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएं की. पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने के प्रयास में पाश ने ‘पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच’ का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर ‘हेमज्योति’ पत्रिका निकाली. इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी. चर्चित कविता ‘युद्ध और शांति’ उन्होंने इसी दौर में लिखी. 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘उडडदे बाजा मगर’ छपा और तीसरा संग्रह ‘साडे समियां विच’ 1978 में प्रकाशित हुआ.
उनकी मृत्यु के बाद ‘लड़ेगें साथी’ शीषर्क से चौथा संग्रह आया जिसमें प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं. पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव अर्थात क्रांति और विद्रोह का है. उनमें एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबर्दस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति अथाह प्यार है. नाजिम हिकमत और ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है. कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीतिक नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढ़ाते हैं. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती है. पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया.
पाश की नजर में एक तरफ ‘शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं, जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं, जो मेजों पर टेनिस बॉल की तरह दौड़ते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं, कविता नहीं होते.’ तो दूसरी तरफ ‘युद्ध हमारे बच्चों के लिए कपड़े की गेंद बनकर आएगा/युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा/युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा/युद्ध बूढी मां के लिए नजर का चश्मा बनेगा/युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा.’ और ‘तुम्हारे इंकलाब में शामिल हैं संगीत और साहस के शब्द/ खेतों से खदानों तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द... बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकली आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है. पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की ऊष्मा है.
1985 में पाश ने अमेरिका से ‘एंटी-47’ पत्रिका के जरिये खालिस्तान का खुला विरोध किया. मार्च 1988 में वह छुट्टियां बिताने गांव आये थे और 23 मार्च को आतंकवादियों ने नहाते समय उनकी हत्या कर दी. सरकारी जेलें हों या आंतकवादियों की बन्दूकें, पाश ने झुकना नहीं स्वीकारा.
दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को कविता में पिरोते हुए अंतत: वह अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह चलते हुए शहीद हो गये. भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है परन्तु दोनों राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं.
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