धर्म संहिता नहीं है ऋग्वेद
ऋग्वेद दुनिया का प्रथम काव्य है. क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर को एक साथ गुनगुनाता हुआ काव्य.
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लयबद्ध, प्रीति रस से सराबोर छंदबद्ध. भारत स्वयं में एक छंदबद्ध काव्य है. ऋग्वेद के पहले भी यहां सुदीर्घ काव्य परंपरा थी. ऋग्वेद के अनेक ऋषियों ने प्राचीन काव्य परंपरा का उल्लेख किया है. ऋग्वेद में ऋषि अयास्य आंगिरस ने कहा है हमारे पूर्वजों ने सात छंदों वाले स्तोत्र रचे थे. इनकी उत्पत्ति ऋत-सत्य से हुई थी.
आंगिरस ने तो स्तुतिपरक-स्तोत्र की रचना का ही उल्लेख किया. लेकिन ऋषि वामदेव ने सीधे ‘काव्य’ शब्द का ही प्रयोग किया है. काव्य अमर होता है कभी मरता नहीं. ऋग्वेद में वामदेव कहते हैं- देवों के काव्य को देखो. यह उगता है, इसका अवसान होता है, फिर-फिर प्रकट होता है. ऋग्वेद का काव्य अभिभूत करता है.
वैदिक काल में यज्ञ होते हैं. यज्ञ देवों की आराधना हैं, एक संस्था भी हैं; लेकिन ऋषि कवि के लिए यज्ञ भी काव्य का विषय हैं. बताते हैं, जैसे शोभन मुस्कराती स्त्री एकनिष्ठ होकर पति की ओर उन्मुख होती है वैसे ही घृतधाराएं अगि की ओर जाती हैं. जैसे पुत्र पिता की गोद में चढ़ता है, घृतधाराएं उसी तरह अगि पर चढ़ती हैं. वैदिक काव्य बड़ा प्यारा है.
वैदिक कवि अपने परिवेश के प्रति भावुक हैं. वष्रा आती है. मेढ़क निकालते हैं. उसके पहले वे छुपे रहते हैं. ऋषि का ध्यान उनके छुपने व प्रकट होने पर तो है ही, उनकी ध्वनि पर भी है. कहते हैं मेढ़क वर्ष भर सोने के बाद व्रत धारण करने वाले स्तुतिकर्ता की तरह प्रसन्न करने वाली वाणी बोल रहे हैं. जान पड़ता है कि ऋषियों का ध्यान ध्वनि तंत्र पर ज्यादा है. कहते हैं- मंडूकों में कोई बकरी की तरह बोलता है और कोई गायों की तरह. जैसे शिष्य अपने गुरू की ध्वनि का अनुसरण करते हैं, वैसे ही ये मंडूक भी हैं.
वैदिक काव्य मधुरस से भरापूरा है. ऋग्वेद में विामित्र और नदी का संवाद भावप्रवण रचना है. विामित्र ने उफनाती नदी से कहा- हम पार उतरना चाहते हैं, आप नीचे होकर बहो. नदी ने कहा- तुम दूर से आए हो. जैसे बच्चों को स्तनपान कराने के लिए मां झुकती है और जैसे पति को आलिंगन करने के लिए पत्नी अवनत होती है, उसी तरह हम भी तुम्हारे लिए नीची हो जाती हैं. यहां नदी भले ही उथली हो जाने की घोषणा करती है लेकिन कवि का भावबोध नदी से भी बहुत गहरा और रम्य है. जल देवता हैं.
जल ही संसार के सारे रसों का आधार हैं. कहते हैं- हे ऋत्विजो! जैसे शोभन पत्नी के साथ पुरुष आनंदित होते हैं, उसी तरह जल से मिलकर सोम. उसी जल से सोम को मिलाओ. रात्रि अंधकार के साथ आती है. ऋषि हृदय में रात्रि के प्रति अनुराग भाव है. कहते हैं- रात्रि ने चारों दिशाओं में विस्तार पाया है. वह नक्षत्रों के साथ शोभा प्राप्त करती है. ऋग्वेद के सभी मंत्र काव्य रस से सराबोर हैं. प्रकृति वर्णन में जहां काव्य की चरम ऊंचाइयां हैं, वहीं दार्शनिक सूक्तों में अनुभूतिक गहराइयां भी हैं.
ऋग्वेद आधुनिक कविता की नई शैली की तरह गद्य-मुक्तक नहीं है. ऋग्वेद आज्ञा सूचक धर्मसंहिता भी नहीं है. यहां किसी देवदूत की घोषणा नहीं है. अनेक ऋषि हैं. विचार विविधिता है. साढ़े दस हजार मंत्रों वाले इस काव्य संकलन में कहीं भी ‘मानने’ पर जोर नहीं है. यहां संसार के प्रति सामान्य आकषर्ण है. ऋग्वेद का समाज परलोक या स्वर्गलोक को यथार्थ संसार से बड़ा नहीं मानता. वह देवताओं को भी अपने भोजन, रसपान और खेती-किसानी के कामों के लिए आमंत्रित करता है. ऋग्वेद एक सनातन प्रवाह है. यूरोपीय विद्वान मैक्समूलर ने लिखा- जब तक पृथ्वी पर पर्वत और नदियां रहेंगी, तब तक ऋग्वेद की महिमा का प्रसार होता रहेगा. ऋग्वेद की रचना अचानक नहीं हुई.
पहले बोली का विकास हुआ, फिर सुव्यवस्थित भाषा संपदा आई. प्रकृति और समाज को देखने के तमाम दृष्टिकोण विकसित हुए. विचार-विमर्श और तर्क-प्रतितर्क का वातावरण था. सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक प्रश्नावली तो थी ही, दार्शनिक प्रश्न भी थे. ऋग्वेद में इसके पहले के अतीत की स्मृतियां हैं. तत्कालीन वर्तमान का रस, आनंद, राग-द्वैष है और भविष्य की दृष्टि भी है. सत्य, शिव और सुंदर भी हैं. शुभ और अशुभ एक साथ हैं. ऋषि सृष्टि, संसार और जीवन रहस्यों का वर्णन करते हैं.
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