पिछड़ी जातियों का कसूर क्या है
क्या आपने कोई ऐसी सरकार देखी है जो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए उत्सुक हो?
आरक्षण पर माया-मुलायम में तकरार |
वैसे तो लगभग सभी सरकारें इस मामले में प्रवीण हैं, तभी तो कुछ दिन शासन करने के बाद वे मतदाताओं की निगाह से उतर जाती हैं. फर्क यह है कि कुछ सरकारें अलोकप्रिय होने में कुछ अधिक समय लेती हैं तो कुछ सरकारें दो-तीन साल में ही अपनी चमक खो देती हैं. लेकिन ऐसी सरकार को क्या कहेंगे जो देखते-जानते हुए भी मक्खी निगलने पर आमादा हो? मेरे खयाल से मनमोहन सिंह की सरकार ऐसी है. प्रोन्नति में आरक्षण के लिए वह जो संविधान संशोधन विधेयक लेकर आई है, वह न केवल असंगत है, बल्कि अन्यायपूर्ण भी है.
गलती की शुरुआत तभी हो गई थी जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार ने शासनादेश के द्वारा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान किया था. यह कदम इसलिए गलत था कि पिछड़ी जातियों के कर्मचारियों को इस अतिरिक्त सुविधा से वंचित कर दिया गया था. जहां तक सरकारी नौकरियों में आरक्षण का सवाल है, एक बात को छोड़ कर अनुसूचित जातियों-जनजातियों और पिछड़ी जातियों में कोई अंतर नहीं है. फर्क सिर्फ यह है कि पिछड़ी जातियों के लिए ‘क्रीमी लेयर’ का अपवाद रखा गया है, जबकि अनुसूचित जातियों-अनुसूचित जातियों के लिए ऐसा कोई बंधन नहीं है. आरक्षण पाने के लिए दोनों वर्गों के लिए बाकी सभी स्थितियां समान हैं.
लेकिन ‘क्रीमी लेयर’ की इस शर्त का पालन कौन करता है? यह शर्त सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसलिए लगाई गई थी कि पिछड़ी जातियों के संपन्न लोग आरक्षण की सुविधा का अधिकतम लाभ न उठा सकें. बहुत-से आरक्षणवादियों को यह नागवार गुजरा था. उनका कहना था कि किसी सामूहिक अधिकार में इस तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता. अमीर है तो क्या हुआ, है तो पिछड़ी जाति का और उसे भी वे सारी वंचनाएं भोगनी पड़ी हैं या अब भी भोगनी पड़ती हैं जो उसके समुदाय के अन्य सदस्यों को. सरकारों के लिए भी यह एक अलोकप्रिय कदम था. ‘क्रीमी लेयर’ को परिभाषित करने का सीधा मतलब था पिछड़ी जातियों के अनेक सदस्यों का असंतोष.
इसलिए प्राय: सभी सरकारों ने ‘क्रीमी लेयर’ को इस तरह परिभाषित किया कि पिछड़ी जातियों के प्राय: सभी सदस्य आरक्षण के दायरे में आ जाएं. अब कुछ हलकों से यह मांग उठ रही है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों को आरक्षण देने के मामले में भी ‘क्रीमी लेयर’ का प्रावधान किया जाए; ताकि इन समूहों के वे सदस्य जो आरक्षण से इतना लाभान्वित हो चुके हैं कि उन्हें अब आरक्षण की जरूरत नहीं रह गई है, इस दायरे से बाहर किए जा सकें, ताकि दूसरे लोगों को मौका मिल सके. मेरे विचार से, यह मांग सर्वथा जायज है. जब तक कतार आगे नहीं बढ़ेगी, तब तक जो कतार में बहुत पीछे हैं, उनका नंबर नहीं आ सकता. आरक्षण नीति का उद्देश्य क्या यह नहीं है कि जो पीछे हैं, वे विशेष अवसर का लाभ उठा कर आगे आ सकें? ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत आरक्षण को और अधिक तार्किक तथा विवेकसंगत बनाता है.
‘क्रीमी लेयर’ पर यह चर्चा इसलिए जरूरी थी कि प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को साफ किया जा सके. इस विषय पर उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी है. कायदे से मामले को यहीं खत्म हो जाना चाहिए था. सर्वोच्च न्यायालय का यह तर्क कहीं से भी कमजोर नहीं है कि आरक्षण नियुक्ति में होना चाहिए, न कि प्रोन्नति में भी. यहां सवाल जाति बनाम योग्यता का नहीं है. चुनौती यह है कि नियुक्ति हो जाने के बाद अनुसूचित जातियों-जनजातियों को भी तो कुछ प्रयास करना चाहिए, ताकि वे प्रोन्नति के योग्य बन सकें. सरकारी नौकरी पाते ही व्यक्ति एक तरह से ‘क्रीमी लेयर’ का सदस्य हो जाता है. लेकिन आरक्षण या विशेष सुविधा का कोई ऐसा मामला क्यों हो जिसमें हस्तक्षेप करने के लिए राजनीति व्यग्र न हो उठे.
मायावती की सरकार बची रहती, तब भी उसके लिए यह संभव नहीं था कि प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान करने के लिए वह संविधान में संशोधन करा ले. लेकिन बसपा तथा अन्य दलों के समर्थन से केंद्र सरकार के लिए यह संभव है. चूंकि बसपा का समर्थन केंद्र सरकार के लिए आवश्यक है, इसलिए उसने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को अमान्य करने के उद्देश्य से संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया. संसद के मानसून सत्र में यह विधेयक पारित नहीं कराया जा सका, यह शायद अच्छा ही हुआ. सरकार को मौका मिला है कि वह इस विधेयक पर ठंडे चित्त से पुनर्विचार करे. अब यह तो संभव नहीं कि इस विधेयक को वापस ले लिया जाए.
सुविधाओं का नियम है कि एक बार मिल जाने पर या उनका आासन हो जाने पर उन्हें वापस नहीं लिया जा सकता. अगर कोई सरकार दृढ़ता दिखाए और ऐसे मामलों में विवेकसंगत तथा दृढ़ कदम उठाए, तो वह अंतत: अलोकप्रिय होने के बजाय लोकप्रिय ही होगी. लेकिन इसके लिए प्रखर दिमाग और चौड़ी छाती चाहिए. वर्तमान राजनीति में ये गुण दुर्लभ हैं. इसलिए सरकारी स्तर पर प्रोन्नति में आरक्षण की पैरवी बनी रहेगी.
बसपा के लिए तो यह मानो जीवन-मरण का मामला है. बसपा मूल रूप से अनुसूचित जातियों की पार्टी है, यद्यपि सत्ता के लिए वह अन्य जाति-समूहों का समर्थन पाने का प्रयास करती है. लेकिन कांग्रेस को इतना संकीर्ण-चित्त क्यों होना चाहिए? सिद्धांत ही नहीं, नीति की भी बात यही है कि या तो सभी को या किसी को भी नहीं. अगर अजा-जजा को प्रोन्नति में आरक्षण मिलने जा रहा है, तो इसमें पिछड़ी जातियों को भी शामिल कर लेना चाहिए. भले ही पिछड़ी जातियों और दलितों की राजनीति में द्वंद्व दिखाई देता हो, पर यह द्वंद्व वास्तविक नहीं, राजनीतिक है. ऐसी राजनीति की जा सकती है जिसमें दोनों का सामंजस्य हो सके. कांग्रेस के लिए तो यह और भी आवश्यक है.
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