खतरनाक साबित होंगे जीएम बीज
अंध वैश्विक के दुष्प्रभाव प्रामाणिक परिणामों के साथ दिखाई देने लगे हैं.
खतरनाक साबित होंगे जीएम बीज |
कृषि मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि अनुवांशिक तौर पर परिवर्धित बीजों (जीएम) से उपजाई गई फसलें मनुष्य व अन्य जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रही हैं.
भेड़ों पर किए परीक्षण में जब इन्हें बीटी कपास के बीज खिलाए गए तो इनके गुर्दे, फेफड़े, जननांग और हृदय के वजन व आकार में आश्चर्यजनक कमी देखने में आई. देश में लाखों टन बीटी कपास के बीजों का खाद्य तेलों के निर्माण में उपयोग हो रहा है. जाहिर है, यह तेल मनुष्य के शरीर पर दुष्प्रभाव छोड़ रहा होगा.
बावजूद हैरानी इस बात पर है कि अनुवांशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समिति (जीईएसी) ने बीटी बैगन के उत्पादन की मंजूरी दे दी. जबकि इसके व्यावसायिक उपयोग का दो साल पहले जबरदस्त विरोध हुआ था और उसे जनदबाव में वापस ले लिया गया था. इस लिहाज से बहुराष्ट्रीय बीज व कीटनाशक दवा कंपनियों के दबाव में केंद्र सरकार का यह फैसला बहुत घातक हो सकता है. इसे तत्काल वापस लेने की जरूरत है.
केंद्र सरकार ने प्रत्यक्ष पूंजी निवेश को महत्व देते हुए बीटी बैंगन के इस्तेमाल को जीईएसी से मंजूरी दिला दी. यह मंजूरी जीईएसी के अध्यक्ष पर वेजा दबाव डालकर दिलाई गई.
यह खुलासा कृषि मामलों की संसदीय समिति की रिपोर्ट में किया गया है. रिपोर्ट से यह भी साफ हुआ है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के पालन में कृषि वैज्ञानिक डॉ. पीएम भार्गव ने जीईएसी को एक सूची देकर जिन तकनीक परीक्षणों की मांग की थी, उन्हें पूरी तरह दरकिनार किया गया और राजनीतिक दबाव में बगैर जरूरी परीक्षण लिए बीटी बैगन के उत्पादन की मंजूरी दे दी गई.
बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए बेहद खतरनाक हैं. जांच के दौरान जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोएं कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ.
इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ. जिसका असर उनके उत्पादन पर दिखाई देने लगा है. इस बाबत संसदीय समिति ने आशंका व्यक्त की है कि देश की कुल कपास उत्पादक कृषि भूमि में 93 फीसद खेती बीटी बीजों से ही हो रही है. इसका चलन 2002 में शुरू हुआ था. उस समय केंद्र में राजग की सरकार थी.
तब कपास के इन संशोधित बीजों के इस्तेमाल की मंजूरी का विरोध वामपंथी और स्वयंसेवी संगठनों ने तो किया ही था, आरएसएस के अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने भी इसका विरोध किया था. लेकिन अमेरिका के दबाव में तत्कालीन सरकार ने किसी भी संगठन की दलीलों को तरजीह नहीं दी और बीटी कपास के उत्पादन की मंजूरी बरकारार रखी.
बीटी बीजों का सबसे बड़ा पहलू यह है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं. बीटी कपास के बीज पिछले एक दशक से चलन में हैं. जांच में पाया गया कि कपास की 93 फीसद परंपरागत खेती को ये बीटी बीज लील चुके हैं. सात फीसद कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है, जहां अभी बीटी कपास की महामारी पहुंची नहीं है.
बीटी से लाखों टन बीज का उत्पादन हो रहा है. बीते 12 साल में इसकी खपत 12 हजार करोड़ रुपए की हो चुकी है. बीटी कपास की खेती के बाद से ही महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक नहीं थमा है.
नए परीक्षणों के जो नतीजे सामने आए हैं, उनसे यह आशंका बढ़ी है कि इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल सेहत पर बुरा असर छोड़ रहा होगा. बतौर प्रयोग बीटी कपास के बीज जिन मवेशियों को खिलाए गए, उनकी रक्त धमनियों में श्वेत व लाल कणिकाओं में बड़ी तादाद में कमी रेखाकिंत की गई है. जो दुधारू पशु इन फसलों को खाते हैं, उनके दूध का सेवन करने वाले मनुष्य का स्वास्थ्य खतरे में है.
जिस बीटी बैगन के उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी है, उसे परिवर्धित कर नए रूप में लाने की शुरुआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी. इसके तहत बीटी बैगन, यानी बोसिलस थुरिनजिनसिस जीन मिला हुआ बैगन बोया गया था. प्रयोग के वक्त जीएम बीज निर्माता कंपनी माहिको ने दावा किया था कि जीएम बैगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन इंजेक्शन प्रवेश कराएंगे तो बैगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा.
मसलन, जहर बैगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में रह जाएगा. बीटी जीन में एक हजार गुना बीटी कोशिकाओं की मात्रा अधिक है, जो मनुष्य या अन्य प्राणियों के शरीर में जाकर आहार तंत्र की प्रकृति को प्रभावित करेगी. इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ्य पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया.
राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी है कि बीटी बीज की वजह से यहां बैगन की स्थानीय किस्म ‘मट्टुगुल्ला’ बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग समाप्त हो जाएगी. बीटी बैगन की ही तरह गोपनीय ढंग से बिहार में बीटी मक्का का प्रयोग दो साल पहले किया गया था. इसकी शुरुआत अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो ने की थी. लेकिन कंपनी द्वारा किसानों को दिए भरोसे के अनुरूप जब पैदावार नहीं हुई तो किसानों ने शर्त के अनुसार मुआवजे की मांग की.
किंतु कंपनी ने अंगूठा दिखा दिया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब चोरी-छिपे किए जा रहे इस नाजायज प्रयोग का पता चला तो उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय से इस पर सख्त ऐतराज जताया. नतीजतन बिहार में बीटी मक्का के प्रयोग पर रोक लग गई. लेकिन इतने बड़े देश में ये प्रयोग कहीं न कहीं जरूर चल रहे होंगे.
दरअसल, भारत के कृषि और डेयरी उद्योग को काबू में लेना अमेरिका की प्राथमिकताओं में शामिल है. इसीलिए जीएम प्रौद्योगिकी से जुड़ी कंपनियां और धन के लालची चंद कृषि वैज्ञानिक भारत समेत दुनिया में बढ़ती आबादी का बहाना बनाकर इस तकनीक के मार्फत खाद्य सुरक्षा की गारंटी का भरोसा जताते हैं.
परंतु इस परिप्रेक्ष्य में भारत को सोचने की जरूरत है कि बिना जीएम बीजों का इस्तेमाल किए ही पिछले एक दशक में हमारे खाद्यान्नों के उत्पादन में पांच गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है. जाहिर है, हमारे परंपरागत बीज उन्नत किस्म के हैं और वे भरपूर फसल पैदा करने में सक्षम हैं.
हमें जरूरत है भंडारण की समुचित व्यवस्था करने की. ऐसा न होने के कारण हर साल हमारा लाखों टन खाद्यान्न खुले में पड़ा रहने की वजह से सड़ जाता है. इसलिए जरूरत है कि हम शक के दायरे में आ चुके जीएम बीजों की बजाय, खेती के पारंपरिक तरीकों को महत्व दें और अनाज भंडारण के लिए बड़ी संख्या में गोदामों की श्रंखला खड़ी करें.
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