शिक्षा के बाजारीकरण के नुकसान

Last Updated 23 Sep 2011 12:31:47 AM IST

बिना किसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी के देश में तकनीकी कॉलेज खुलते जा रहे हैं.


लोगो को यह एक अच्छा व्यवसाय नजर आने लगा है. योजना आयोग ने हाल में इस पर अपना ताजा दृष्टिकोण-पत्र जारी कर दिया है. दृष्टिकोण-पत्र के मुताबिक एक अप्रैल 2012 से शुरू हो रही 12वीं पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा, खासकर तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बड़ी भूमिका देने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने की जरूरत है.

अभी इस दृष्टिकोण-पत्र पर सरकार की मुहर नहीं लगी है, बावजूद इसके यह सुझाव पिछले वर्षो के दौरान उच्च शिक्षा क्षेत्र के बारे में चली चर्चा के अनुरूप ही है. विदेशी विविद्यालयों को भारत में अपनी शाखा खोलने की इजाजत के साथ भी यह बात जुड़ी हुई है कि वे सिर्फ मुनाफे की संभावना दिखने पर ही यहां आएंगे.  

उदारीकरण व निजीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र को अपने फंदे में जकड़ लिया है. वह  क्रय-विक्रय की ऐसी वस्तु बनती जा रही है, जिसे बाजार में मनमाफिक धन  देकर खरीदा जा सकता है. परिणामत: उसमें एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है. कम प्रतिभाशाली किंतु आर्थिक रूप से संपन्न छात्र आईआईटी, एमबीए, सीए, एमबीबीएस आदि उपाधियां पा उच्च भावना से ग्रस्त होते हैं जबकि धनाभाव के कारण प्रवेश से वंचित प्रतिभाशाली छात्र हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं. इस रूप में असमानता की खाई बढ़ रही है. सामाजिक असंतुलन और विषमता इसका ही परिणाम है.

वास्तव में पूंजीवादी वि के बदलते स्वरूप और परिवेश में हम शिक्षा का सही उद्देश्य समझ ही नहीं पा रहे हैं. देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के एडिनबरा विविद्यालय मे भाषण देते हुए कहा था कि शिक्षा और मानव इतिहास का अंतिम लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति या स्वतंत्रता है. पर जब मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जाए, उसका लक्ष्य सर्वजन हिताय की परिधि से हटकर घोर वैयक्तिक दायरे में सिमट जाए तो मानव स्व के निहितार्थ क्रियाशील हो जाता है और समाज में करु णा की जगह क्रूरता, सहयोग की जगह दुराव, प्रेम की जगह राग-द्वेष का बीज-वपन होने लगता है.

आज शिक्षा की गुणात्मकता और उद्देश्य का तीव्रतर ह्रास हो रहा है फलस्वरूप समाज में सहिष्णुता की भावना कमतर होती जा रही है. आज की शिक्षा ने शिक्षक और शिक्षार्थी, दोनों को पूंजी और बाजार का पिछलग्गू और हिमायती बना दिया है. शिक्षा की दिशा में हमारी सोच इस कदर व्यावसायिक और संकीर्ण हो गई है कि हम सिर्फ उस मूल्यवत्ता पर भरोसा करते और महत्व देते हैं जो हमारी सुख-सुविधा का साधन जुटाने में मदद कर सके.

देश की प्राकृतिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं व व्यावसायिक व तकनीकी ज्ञान की उपेक्षा कर बनायी गयी शिक्षा पण्राली का ही परिणाम है कि आज युवा अपनी संस्कृति और परम्परागत व्यवसाय से विमुख हो रहे हैं. साथ ही किताबी ज्ञान आधारित शिक्षा के अनुरूप पर्याप्त रोजगार के अभाव में बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर हैं. नंबरों की होड़ युक्त शिक्षा पण्राली तनावग्रस्त करती है और वांछित सफलता न मिलने पर कभी-कभी खुद को नुकसान पहुंचाने वाले कदम उठाने को बाध्य करती है .

गांधी जी ने कहा था कि देश की समग्र उन्नति और आर्थिक विकास के लिए तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता बहुत जरूरी है. इसे प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने कहा था कि कॉलेज में आधे समय में किताबी ज्ञान दिया जाये और आधे समय उसी ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष बताकर उसका प्रयोग सामान्य जिन्दगी में कराया जाये. हम तो गांधीजी की इस सोच को अमल में नहीं ला पाये पर चीन ने इसे पूरी तरह अपनाया. सब जानते हैं कि हर लिहाज से आज चीन भारत से बहुत आगे है.

सरकार तकनीकी  शिक्षा पण्राली में बदलाव के लिए जो  कदम उठा रही है, मसलन प्रवेश परीक्षाओं से लेकर पाठय़क्रम तक में जो बदलाव हो रहे हैं उनका एक ही मकसद है कि कैसे दुनिया के बाजार के लिए पेशेवरों की फौज तैयार हो. यानी हमारे युवा सिर्फ तकनीकी डिग्रियां हासिल कर वैश्विक बाजार में दोयम दर्जे की नौकरी कर रहे होंगे. इस पहल से हम तकनीकी ज्ञान की सस्ती फौज ही हम तैयार कर पाएंगे जिसकी बदौलत दुनिया मुनाफा कमाएगी. ऐसे प्रस्ताव से सिर्फ विदेशी कंपनियों को फायदा होगा क्योंकि उन्हें देश-विदेश में सस्ते में भारतीय पेशेवर मिलेंगे.

बहरहाल, जरूरत है ऐसे तकनीकी ज्ञान की जो व्यावहारिक हो और जिसे हम देश की परिस्थितियों के हिसाब से प्रयोग कर सकें. देश के नौजवानों में इसे सिर्फ डिग्री लेने तक ही सीमित न रखें बल्कि इसे लेकर उनके अन्दर कुछ सकारात्मक कर पाने के लिए एक उत्साह हो, समझ हो, विश्वास हो.

शशांक द्विवेदी
लेखक


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