सबक सही सीखें तो मिले बड़ी उपलब्धि

Last Updated 11 Aug 2024 12:52:37 PM IST

इतिहास को कई बार राजा-रानियों के इतिहास और विभिन्न शासकों के आपसी युद्धों के संदर्भ में अधिक देखा जाता है।


सबक सही सीखें तो मिले बड़ी उपलब्धि

इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण यह समझ बनाना है कि इतिहास के किस दौर में मनुष्य ने, जनसाधारण ने बेहतर प्रगति की और कब वे पीछे हटे। उनके आगे बढ़ने या पिछड़ने के क्या कारण थे। यह समझना बहुत आवश्यक है।

प्राय: मान लिया जाता है कि समय के साथ-साथ मनुष्य ने प्रगति अवश्य की होगी क्योंकि जैसे-जैसे विभिन्न आविष्कार होते गए, वैसे-वैसे मनुष्य की क्षमताएं बढ़ती गई होंगी। यह इतिहास की बहुत संकीर्ण व्याख्या है जो प्रगति की सही समझ पर आधारित नहीं है। मान लीजिए कि विज्ञान ने प्रगति की, नये आविष्कार हुए पर इन सबका दुरुपयोग ऐसे हुआ कि युद्ध महाविनाशक हथियारों से लड़े जाने लगे और पर्यावरण का बहुत विनाश होने लगा। तो इसे प्रगति कैसे माना जा सकता है? वास्तव में मनुष्य की प्रगति तो तब मानी जाएगी जब न्याय और समता, अमन-शांति, पर्यावरण और अन्य जीवों की रक्षा, परस्पर सहयोग और समन्वय की स्थितियां बेहतर होंगी।

अत: इतिहास के विभिन्न दौरों में हमें यह देखना होगा कि ऐसी स्थितियां आगे बढ़ती हैं या नहीं। मनुष्य आज जिस रूप में है, उससे मिलती-जुलती स्थिति में मनुष्य की मौजूदगी लगभग एक लाख वर्ष पूर्व दर्ज हुई है। यह कुछ कम अधिक भी हो सकती है पर मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि लगभग एक लाख वर्ष पहले हमारे जैसे मनुष्य धरती के अनेक भागों पर नजर आने लगे थे। दूसरी ओर, एक स्थान पर रह कर कृषि की शुरुआत लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व ही आरंभ हुई। इस तरह अपने एक लाख वर्ष के इतिहास के पहले 90000 वर्षो में मनुष्य की मूल प्रवृत्ति यह थी कि वह छोटे समूहों में रहते थे और अधिकतर फल-फूल, कंद-मूल एकत्र कर और  अवसर मिलने पर छोटा-बड़ा शिकार कर पेट भरते थे। आसपास उपलब्ध संसाधनों से वस्त्र और आवास की आपूर्ति कर लेते थे और मामूली औजार बना लेते थे।

अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि ये समुदाय समता और सहयोग पर आधारित थे और उनमें ऊंच-नीच नहीं थी। अपनी जरूरतों को एकत्र करने में एक समुदाय के विभिन्न परिवार और व्यक्ति एक दूसरे के साथ सहयोग करते थे और जो भोजन एकत्र करते थे उसे मिल-बांटकर खाते थे। महिलाओं को सम्मान मिलता था और उनसे जोर-जुल्म नहीं होता था। कोई राजा या गुलाम नहीं था। विभिन्न समुदायों में भी आपसी युद्ध नहीं होता था और एक स्थान पर खाद्य उपलब्ध न होने पर कोई समुदाय दूसरे से लड़ने के स्थान पर दूसरे स्थान पर चला जाता था। मूल प्रवृत्ति घुमंतुपन की ही थी। अत: इसमें किसी को कोई बड़ी दिक्कत भी नहीं थी। यह सब इसलिए भी समझना है क्योंकि कई बार बड़ी लापरवाही से कह दिया जाता है कि लड़ने-झगड़ने, छीना-छपटी और दूसरों को दबाकर रखने की मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही है।

अत: यह जोर देकर कहना चाहिए कि मनुष्य के इतिहास के पहले 90 प्रतिशत समय में युद्ध, छीना-छपटी, लड़ाई-झगड़े, दूसरों को दबा कर रखना, ऊंच-नीच, राजा-प्रजा ये सब प्रवृत्तियां मनुष्य में नहीं थीं (या बहुत कम थीं) जबकि सहयोग, समता, मिल-बांटकर खाने, अमन-शांति से रहने की प्रवृत्तियां कहीं अधिक थीं।
यह एक बड़ी विडंबना है कि जिस समय मनुष्य इस घुमंतु और सादे जीवन के दौर से निकल कर ऐसे दौर में आया जिसे ‘सभ्यता’ या सिविलाइजेशन कहा जाता है तभी से मानव-जीवन में ऊंच-नीच, दूसरों को दबाने और शोषण की प्रवृत्ति, युद्ध और लड़ने-झगड़ने की प्रवृत्ति भी अधिक आ गई। ऐसा कैसे हुआ?

घुमंतु और आस-पास से भोजन एकत्र करने के दौर में ही मनुष्य ने पौधे उगाना सीखा और फिर धीरे-धीरे गांव बसा कर खेती करने लगा। कुछ समय तक यह मजे से चला पर सूखा पड़ने पर फसल सूख जाती थी। अत: भंडार बनाने की जरूरत महसूस हुई और फिर ये भंडार बढ़ने लगे। इन भंडारों की व्यवस्था कौन करे? इसके लिए कहीं पर पूजा-पाठ करने वाले आगे आए  तो कहीं सैन्य  क्षमता वाले। पहले उन्होंने व्यवस्था की, फिर भंडार अपने नियंत्रण में लिए, फिर साधारण किसानों से इसके लिए वसूली की। जहां भंडार अधिक समृद्ध हो गए, उस पर ऐसे लोगों की नजर पड़ी जिनके पास भंडार नहीं थे और उन्होंने ताकत के बल पर इन भंडारों को लूटने का प्रयास किया। इस तरह ऊंच-नीच, शोषण, छीना-छपटी, यृद्ध, राजा-प्रजा की प्रवृत्तियां बढ़ने लगीं।
जब गांव और कृषि की उत्पादकता बढ़ी और आधिपत्य  करने वालों ने किसानों से अधिक हिस्सा प्राप्त किया और इसके बल पर धीरे-धीरे शहरी सभ्यताओं की ओर बढ़े पर इन सभ्यताओं के पनपने और उनकी समृद्धि के साथ असमानता और शोषण भी बढ़ गए और शासक वर्ग अपनी विलासिता पर ही नहीं अपने भवनों और मकबरों पर भी अत्यधिक संसाधन खर्च करने लगे।

इन्हें अंत में किसानों और मेहनतकशों के शोषण से प्राप्त किया। चंद सभ्यताओं की समृद्धि बढ़ी तो उन पर बाहरी हमले भी बढ़ने लगे और इन युद्धों के बंदियों को गुलाम भी बनाया जाने लगा।
दूसरी ओर, जब जोर-जुल्म बढ़े तो इससे परेशान लोगों में नये सिरे से अमन-शांति, समानता और सादगी के लिए गहरी चाह उत्पन्न हुई और इसके फलस्वरूप कभी महात्मा बुद्ध के रूप में तो कभी महावीर जैन के रूप में अहिंसा, अमन-शांति, सादगी और सद्विचार का संदश देने वाले महान मार्गदर्शकों ने नई राह दिखाई। यहां तक कि सम्राट अशोक जैसे महान विजेता शासक ने भी एक बड़ी विजय के बाद अमन-शांति की राह अपनाने में ही संतोष प्राप्त किया। दूसरी ओर, प्राचीन सभ्यताओं के विकास में जो रोमन साम्राज्य सबसे अधिक विस्तारवादी और  पराक्रमी होने का गौरव रखता था, जिसकी सड़कों और भवनों का वैभव दूर-दूर तक विख्यात था, उस रोम साम्राज्य में ही गुलाम प्रथा, शोषण, विषमता, विलासिता, बुरे व्यसनों और  चरित्र की गिरावट की भी पराकाष्ठा देखी गई।

इस तरह इतिहास में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे पर एक मूल प्रवृत्ति यह देखी गई कि जब भी अमन-शांति, सहयोग और समता, न्याय और करुणा, पर्यावरण और जीव-जंतुओं की रक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया। तभी मानव समाज को अधिक खुशहाली, सुकून संतोष मिल सके और वास्तविक प्रगति दे सके। यह इतिहास का एक बड़ा सबक है कि प्रगति, न्याय और  समता, अमन-शांति और पर्यावरण की राह प्राप्त होती है, और  इसके लिए सतत प्रयास करना पड़ता है।

भारत डोगरा


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