भंवर में बांग्लादेश
बांग्लादेश में कुछ महीनों से आरक्षण को लेकर छात्रों का असंतोष इतना व्यापक हो गया कि 15 बरसों देश की सत्ता संभालने वाली प्रधानमंत्री शेख हसीना को पद से इस्तीफा देकर भारत भागना पड़ा।
भंवर में बांग्लादेश |
अब बांग्लादेश में शासन सेना के हाथ में है। जनवरी, 2024 में हसीना ने लगातार तीसरी बार जनादेश हासिल किया था लेकिन मुख्य विपक्षी दल ने चुनाव का बहिष्कार किया था। चुनावों में धांधली का आरोप लगाया था। इसलिए माना जा रहा है कि चुनाव का बहिष्कार करने वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और कट्टर मुस्लिम संगठन जमायते इस्लामी परोक्ष रूप से छात्र असंतोष को हवा दे रहे थे।
जाहिर है कि देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने वाली ताकतों से हसीना सरकार को सख्ती से निपटना पड़ा। लेकिन यह सख्ती सरकार के लिए महंगी साबित हुई। जनाक्रोश बढ़ता गया और शेख हसीना के पसंदीदा सेना प्रमुख जनरल वकार-उजा-जमां भी उनकी सरकार को बचा नहीं पाए। हसीना सरकार के पतन से यह मिथक भी टूट गया कि देश का आर्थिक विकास शासनाध्यक्ष की सत्ता को स्थिरता प्रदान करता है।
वस्तुत: हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश आर्थिक विकास की पटरी पर तेजी से दौड़ लगा रहा था। करीब पचास वर्ष पूर्व जाने-माने अमेरिकी समाज विज्ञानी प्रो. हंटिगटन और नेल्स ने एक परिकल्पना प्रस्तुत की थी जो आज बांग्लादेश पर सही साबित हो रही है।
इन विद्वानों का मत है कि विकासशील देशों में सामाजिक-आर्थिक समानता एवं जनसहभागिता के मध्य संघर्ष होता है। सामाजिक-आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन कायम करने में हसीना विफल रहीं।
विपक्षी दलों द्वारा आम चुनाव का बहिष्कार, छात्रों के आरक्षण विरोधी आंदोलन को बलपूर्वक दबाना आदि सरकार के दमनकारी कृत्यों के कारण हसीना का पंद्रह वर्षों का शासन अचानक धराशायी हो गया। इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि जनता 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के पक्ष और विपक्ष में बंट गई।
हसीना का प्रदर्शनकारियों को ‘रजाकर’ कहने ने आग में घी का काम किया। रजाकर उन्हें कहा जाता है जो मुक्ति संघर्ष के विरोध में थे। हसीना के कामकाज की आलोचना की जा सकती है, लेकिन वह सेक्युलर नेता थीं। विडंबना है कि देश की नई पीढ़ी मुक्ति संघर्ष का अपमान कर रही है।
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