मीडिया और नैरेटिव

Last Updated 09 Jun 2024 01:50:34 PM IST

यों 2024 के आम चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। बीजेपी की सरकार की जगह अब ‘एनडीए’ की सरकार बन रही है। फिर भी कई बार विपक्षी प्रवक्ता मीडिया व एंकरों पर अपना क्रोध न्यौछावर करते रहते हैं कि सत्ता पक्ष के प्रवक्ता को आपने ज्यादा टाइम दिया, हमें कम दिया कि हमारे साथ टोकाटाकी ज्यादा की..।


मीडिया और नैरेटिव

एंकर कितना भी कहे कि आपको पूरा टाइम दिया गया फिर भी आप टॉपिक पर भी अपनी बात नहीं कह पाए तो भी विपक्ष के कई प्रवक्ताओं को चैन नहीं पड़ता। वे अपने हमले जारी रखते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि विपक्ष ने आक्रामकता को रणनीति की तरह अपनाया है ताकि मीडिया को रक्षात्मक बना कर अपने ‘राजनीतिक नैरेटिव’ को हावी कर सके। इसीलिए कई विपक्षी प्रवक्ता पहले क्षण से आक्रामक  मुद्रा अपना कर चैनल व एंकर को कोसने लगते हैं कि आप सत्ता के दलाल हैं, आप बिके हुए हैं..।  

जवाब में कई एंकर कहते दिखे हैं कि हम सबको बराबर का वक्त देते हैं लेकिन आप टॉपिक पर नहीं रहते। इसलिए हमें टोकना पड़ता है..हमें कब क्या सवाल करना है, क्या नहीं, किस विषय पर बहस करानी है, किसका इंटरव्यू लेना है, किससे बात करनी है, किससे नहीं, ये हमारा चैनल ही तय करता है। आप नहीं कर सकते। एंकरों व पत्रकारों को टारगेट करना, सत्ता पक्ष का बताना और उनकी ‘साख’ पर हमला कर उनको विचलित करना विपक्ष की ‘नई मीडिया रणनीति’ का हिस्सा रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि विपक्ष ने इस नीति में वह एक हद तक कामयाब भी रहा है क्योंकि वह मानता है कि जब तक हम मीडिया पर हमला कर दबाव नहीं बनाएंगे तब तक यह काबू में नहीं आएगा। इसलिए जब भी मौका मिले, हमला करो, उसकी ‘साख’ को ‘टारगेट’ करो ताकि वह विपक्ष के पक्ष में झुके और दर्शक भी विपक्ष के रुतबे को मानें।

इसके लिए पहले अपने को मीडिया का ‘विक्टिम’ बना कर पेश करो लेकिन आकामक बने रहो और अपने ‘सत्य’ पर अड़े रहो। हमने कई प्रवक्ता देखे हैं जो मुद्दे पर रहने की जगह अपनी रटी हुई बात कहते रहते हैं और टोकने पर एंकर से लड़ने लगते हैं कि आप हमें टोक रहे हो। और ऐसा इसलिए करते हैं तािक वे मीडिया का भरपूर उपयेग कर सकें। अपना मुद्दा, अपना नैरेटिव सेट कर सकें क्योंकि आज की सारी राजनीति सत्य या तथ्य  की  जगह ‘नैरेटिव’ से संचालित है। ‘नैरेटिव’ को हिन्दी में ‘कहानी’, ‘आख्यान’ या ‘वृत्तांत’ का नाम दिया जाता है लेकिन ‘नैरेटिव’ सिर्फ सामान्य कहानी, आख्यान या वृत्तांत जैसा नहीं होता, बल्कि एक ‘पॉवर’ (सत्ता) का ‘आख्यान’ होता है।

यहां हमें यह भी समझ लेना चाहिए  कि ‘सत्ता’ सिर्फ किसी ‘शासन’,‘प्रशासन’ या  ‘शासक’ ‘प्रशासक’ की नहीं होती, वह ‘प्रतिपक्ष’ की भी होती है। इस संदर्भ में ‘नैरेटिव’ का अर्थ होता है: एक विशेष व सुगठित वैचारिक ढांचे में एक पक्के और गढ़े हुए तर्क संजाल को कहानी या आख्यान की तरह जोर-शोर से स्थापित करना जिसके अंतर्गत आती हर बात, हर तर्क, एक कल्पित सत्य का निर्माण करे जिसे बार-बार कहा जाए ताकि वही एक मात्र ‘सच’ लगने लगे!
ऐसे नैरेटिव को बनाने वाले और कहने वाले का नजरिया एक खास वैकल्पिक सच का निर्माण करता है जिसमें किसी दूसरे नजरिए और किसी दूसरे तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती! आज के ‘मीडिया’ व ‘सोशल मीडिया’ में ‘सच’ को ‘झूठ’ और ‘झूठ’ को ‘सच’ बनाने के लिए ऐसे ही नैरेटिवों से काम लिया जाता है।

इसे हम एक ताजा उदाहरण से समझने की कोशिश करें : एक रोज एक एअरपोर्ट पर एक महिला सांसद को एक महिला कांस्टेबल ने थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ खाने वाली महिला सांसद ने जब पूछा कि क्यों मारा तो उसने कहा कि वह किसान आंदोलन को बदनाम करने वाले उसके एक मेसेज से नाराज थी..। ऐसे में कानून कहता है कि ड्यूटी करते वक्त किसी भी वर्दीधारी को अपनी खुन्नस निकालने का हक नहीं लेकिन यह घटना घटित होते ही सोशल मीडिया में ‘दो नैरेटिवों’ में बंट गई। एक नैरेटिव थप्पड़ खाने वाली के प्रति ‘हमदर्दी’ में चला तो दूसरा थप्पड़ मारने वाली के पक्ष में भी चला कि थप्पड़ मारने वाली का गुस्सा जायज है। एक चैनल पर एक प्रवक्ता ने तो इसे ‘डाइसेंट’ यानी ‘असहमति’ कह कर थप्पड़ को भी महिमा मंडित कर दिया। एक नैरेटिव ने इस हिंसा को  एक ‘अवाछित हिंसा’ की तरह बताया जबकि दूसरे ने सिर्फ ‘असहमति’ कहा। इसलिए आज के मीडिया की समीक्षा करनी हो तो उसके बनाए और स्थापित किए जाते नैरेटिवों पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

सुधीश पचौरी


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