धरती की रक्षा : सभी जीवों की रक्षा ही है इंसानियत
पृथ्वी पर जीवन के लाखों रूप तरह-तरह के पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, जल-जीवों आदि के रूप में मौजूद हैं।
धरती की रक्षा : सभी जीवों की रक्षा ही है इंसानियत |
इनमें से अनेक जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से दूसरे जीवों का शिकार करते हैं, पर कई बार ध्यान से देखने पर पता चला कि भूख न होने पर वे दूसरे जीव को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। दूसरे शब्दों में वे अनावश्यक हिंसा नहीं करते हैं। शाकाहारी जीवों में तो करुणा और अन्य संकटग्रस्त जीवों की सहायता की प्रवृत्ति और भी स्पष्ट रूप से देखी गई है। अपने घायल साथी या अन्य किसी जीव की वे मदद करते देखे गए हैं, किन्तु उनकी यह क्षमता बेहद सीमित है। किसी भी पशु-पक्षी, कीट-पतंगे या जल-जीव में यह क्षमता नहीं है कि पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों की रक्षा के लिए नियोजित ढंग से कार्य कर सके। यह क्षमता पृथ्वी पर केवल मनुष्य को ही मिली है।
पृथ्वी पर जीवन के लाखों रूप हैं पर केवल मनुष्य में यह क्षमता है कि नियोजित ढंग से पृथ्वी के लाखों विविध तरह के जीवन-रूपों की रक्षा के लिए प्रयास कर सके, उनके पनपने और फलने-फूलने के अनुकूल पर्यावरण की रक्षा कर सके। मनुष्य की विशिष्ट क्षमताओं का मूल औचित्य इसी में है कि वह जीवन के विभिन्न रूपों की रक्षा करे। यही मानवता का मुख्य उद्देश्य है। जब मनुष्य अपने इस मूल उद्देश्य और औचित्य के अनुरूप जीते हैं, तभी वे इंसानियत की कसौटी पर खरा उतरते हैं, तभी वे सही अथरे में इंसान कहलाते हैं। जितनी बढ़ती संख्या में मनुष्य इंसानियत को प्राप्त करेंगे या इसके अनुरूप जीवन जिएंगे, उतनी ही पृथ्वी पर जीवन के विविध रूपों की रक्षा होगी, उनके जीवन के पनपने के अनुकूल पर्यावरण की रक्षा होगी और धरती पर विभिन्न तरह के जीवन के फलने-फूलने की स्थितियां बनी रहेंगी, बेहतर होंगी।
इस बारे में व्यापक सहमति है कि मनुष्यों को एक-दूसरे की भलाई के बारे में सोचना चाहिए। यह इंसानियत के लिए जरूरी तो है पर पर्याप्त नहीं है। जिस तरह मनुष्य दुख-दर्द का अनुभव करते हैं, उसी तरह जीवन के अधिकांश अन्य रूप भी दुख-दर्द का अनुभव करते हैं। पृथ्वी मनुष्य की ही नहीं जीवन के अन्य रूपों की भी है। अत: सभी मनुष्यों की समता और भलाई के बारे में सोचना तो बहुत जरूरी है ही, पर साथ ही जीवन के अन्य रूपों की चिंता करना भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्यों सहित विभिन्न अन्य जीवन-रूपों की रक्षा के लिए उन समुद्रों, नदियों, वनों, मिट्टी, वायुमंडल को बचाना जरूरी है, जहां से यह जीवन प्राप्त होता है। पर्यावरण बचेगा तभी जीवन के विविध रूपों की रक्षा होगी-आज भी और कल भी। आगामी पीढ़ियों की चिंता करना उतना ही जरूरी है जितना वर्तमान की चिंता करना। सार्थक सामाजिक बदलाव की राह यही होनी चाहिए कि बढ़ती संख्या में मनुष्य अपने मूल उद्देश्य को पहचानें और विभिन्न जीवन रूपों के रक्षक के रूप में मनुष्य की मूल भूमिका को व्यापक पहचान मिले। जब इस तरह इंसानियत का प्रसार तेजी से होगा तो पृथ्वी पर मनुष्य सहित सभी जीवन रूपों के दुख-दर्द भी तेजी से कम होंगे।
क्या ही अच्छी बात होती, कितनी सुंदर वह दुनिया होती, यदि पृथ्वी पर मनुष्य का जो कल्याणकारी उद्देश्य है उसके अनुकूल ही सब मनुष्यों को स्वभाव सदा के लिए मिला होता। तब सभी मनुष्य अपना जीवन एक-दूसरे की और जीवन के अन्य रूपों की भलाई के लिए जीते और दुनिया सभी के लिए बहुत कल्याणकारी होती। किंतु अफसोस कि ऐसा नहीं है। अपने मूल कर्त्तव्य और औचित्य के अनुरूप जीवन जीने के गुण ऐसे ही प्राप्त नहीं हो जाते अपितु उन्हें विकसित करने के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है। सभी मनुष्य ऐसे ही इंसान नहीं बन जाते, काफी प्रयास करने के बाद इंसान बन सकते हैं। हां, यदि समाज में अनुकूल माहौल हो तो मनुष्यों के इंसान बनने की संभावना बढ़ जाती है, यह कार्य सहज हो जाता है, और अधिक संख्या में मनुष्य इंसान बनने लगते हैं।
जिस समाज में बहुत अन्याय और विषमता है, प्राय: वहां बहुत गरीबी और अभाव भी हैं। जब कोई व्यक्ति भूख से पीड़ित है या अन्य गंभीर अभावों से त्रस्त है तो उसे इंसानियत का उपदेश देना क्रूर मजाक है। यह अलग बात है कि कई गरीब व्यक्ति घोर कठिनाइयों के बीच सच्चे इंसान का जीवन जीकर दिखा देते हैं। पर अधिक व्यापक सच्चाई यह है कि जिस समाज में विषमता और इससे उत्पन्न अभाव हैं, वहां बहुत से लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के संघर्ष में इतने उलझे होते हैं कि उनके लिए दूसरों के दुख-दर्द दूर करने के लिए अधिक समय निकालना कठिन होता है। दूसरा अवरोध यह है कि मनुष्य को इंसान बनने के लिए जो प्रेरणादायक माहौल चाहिए वह प्राय: समाज में नजर नहीं आता। इसके स्थान पर ऐसे जीवन मूल्य अधिक नजर आते हैं जो इंसानियत के रास्ते से विचलित करते हैं।
सभी मनुष्यों के जीवन में अपनी कमजोरियों और अपनी इंसानियत के गुणों के बीच में संघर्ष होता है। विभिन्न तरह के ऐंद्रिक सुखों का आकषर्ण उसके जीवन पर हावी होने का प्रयास करता है। जैसे बहुत साधन कमाने, भौतिक वस्तुओं के संचय, सुविधाओं और विलासिताओं भरा जीवन जीने, बहुत समृद्ध खान-पान करने, नशा करने, अमर्यादित यौन संबंध बढ़ाने, निरंतर सबसे आगे निकलने के आकषर्ण। इस स्थिति में मनुष्य जीवन भर इन ऐंद्रिक सुखों के पीछे भागता-भटकता रहता है और अपने मूल कर्त्तव्य की बात को भूल जाता है। इतना ही नहीं, ऐंद्रिक सुखों का पीछा करने में अगर उसे अपने मूल कर्त्तव्य को, इंसानियत के उसूलों को रौंदना भी पड़े तो उसे कोई हिचक नहीं होती। जब किसी में अंतहीन लालच होता है तो उसमें दूसरों के हक और जरूरत की परवाह न कर अपने लिए अधिक छीनने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से पनपती है। वह बिना किसी झिझक के दूसरे मनुष्य के दुख की परवाह किए बिना उसका हक और संसाधन छीन सकता है। जहां तक पशु-पक्षियों के हक या उनका जीवन तक छीनने का सवाल है, तो इसके बारे में तो वह और भी कम चिंता करता है।
जब दुनिया में अंतहीन लालच वाले मनुष्य अधिक पनपते हैं तो दुनिया इंसानियत के मूल उद्देश्य से बुरी तरह भटक जाती है। इस दुनिया में कुछ शक्तिशाली मनुष्यों के अत्यधिक लालच और उपभोग के कारण बड़ी संख्या में अन्य मनुष्यों, पशु-पक्षियों और अन्य जल-जीवों का दुख-दर्द बहुत बढ़ जाता है। इंसानियत के अनुकूल समाज बनाने के लिए दो स्तरों पर प्रयास आवश्यक हैं। पहली बात तो यह है कि विषमता के स्थान पर समता, अन्याय के स्थान पर न्याय लाकर ऐसा समाज बनाया जाए जिसमें लोगों के लिए अपनी जरूरतें पूरी करना आसान हो। साथ ही, समाज में ऐसा माहौल बनाना बहुत जरूरी है जिससे लोग सच्चे इंसान बनने के लिए निरंतर प्रेरित हों। जो लोग इंसानियत का संदेश समझ चुके हैं और इसके अनुकूल जीना आरंभ कर चुके हैं, उनका जीवन स्वयं एक संदेश बन जाता है। उनसे मिलकर लोग महसूस करते हैं कि इस तरह के जीवन को अपनाना चाहिए और इस तरह इंसानियत के अनुरूप जीवन का संदेश अधिक लोगों तक पहुंचता जाता है। किंतु साथ ही जो लोग इंसानियत का जीवन जी रहे हैं और तमाम कठिनाइयों और उलझनों के बीच भी गहरे संतोष को अनुभव कर रहे हैं, उन्हें अपनी ओर से सक्रिय प्रयास भी करने चाहिए कि इंसानियत का यह संदेश अधिक लोगों तक पहुंचे।
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