चंपई सोरेन की ताजपोशी
झारखंड में चंपई सोरेन के राज्य का मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही वहां दो दिन से जारी राजनीतिक ड्रामे का पटाक्षेप हो गया।
चंपई की ताजपोशी |
मुख्यमंत्री चंपई के साथ गठबंधन सरकार में शामिल कांग्रेस के आलमगीर आलम और राष्ट्रीय जनता दल के सत्यानंद भोक्ता ने कैबिनेट मंत्री की शपथ ली है। नई सरकार को 10 दिन में अपना बहुमत साबित करने को कहा गया है।
पिछले बुधवार को हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और इस्तीफे के बाद चंपई को विधायक दल का नेता चुन लिया गया था और वे 43 विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को सौंप चुके थे, लेकिन राजभवन से नई सरकार का गठन करने का समय नहीं मिलने के कारण संशय बना हुआ था।
झारखंड मुक्ति मोर्चा और गठबंधन के अन्य दलों में टूट की आशंका जाहिर की जा रही थी। राज्यपाल की ओर से मुख्यमंत्री को शपथ दिलाने में हुई देरी पर शुक्रवार को लोक सभा में विपक्षी दलों ने काफी हंगामा किया। विपक्ष का कहना था कि बिहार में नीतीश कुमार को इस्तीफा देने के तुरंत बाद नई सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन झारखंड में ऐसा क्यों नहीं हुआ। विपक्ष का सवाल जायज है।
आजादी के बाद से ही राज्यपालों की भूमिका सवालों के घेरे में रही है। केंद्र और राज्यों में जब कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक प्रभुत्व था तब राज्यों की विपक्षी सरकारों को गिराने में राज्यपालों की महती भूमिका हुआ करती थी। पिछले कुछ वषर्ोे की बात की जाए तो महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्यों में भी राज्यपालों की भूमिका विवादास्पद रही। हालांकि संविधान के तहत राज्यपाल को विवेकाधिकार भी प्राप्त है।
यह उनका संवैधानिक दायित्व बनता है कि राज्य में स्थिर और टिकाऊ सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त हो। जब वह आस्त हो जाता है कि अमुक राजनीतिक दल, गठबंधन और अमुक व्यक्ति के नेतृत्व में स्थिर सरकार का गठन हो सकता है तो वह उसे शपथ ग्रहण के लिए आमंत्रित करता है।
जाहिर है इसके लिए कुछ वक्त लग सकता है। लेकिन इतना समय भी नहीं लगना चाहिए कि अनिश्चितता को बल मिले। टूट और खरीद-फरोख्त के डर से चंपई सरकार के कुछ विधायकों को हैदराबाद भेज दिया गया है। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए यह हास्यास्पद सी बात है। अपने गठबंधन को एकजुट रखना चंपई के लिए बड़ी चुनौती होगी। वह ईमानदार नेता माने जाते हैं लेकिन कितना स्वालंबी रह पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
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