विचार का समय
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों मुख्यधारा की मीडिया तथा सोशल मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं। उनके राजनीतिक विरोधी उन पर झंडा-डंडा लेकर पिल पड़े हैं तो नीतीश कुमार के कट्टर और राजनीतिक मजबूरीवश समर्थन देने को विवश समर्थक उनके पक्ष में तर्क खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद वे नीतीश का बचाव नहीं कर पा रहे हैं।
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नीतीश के ईर्द-गिर्द यह राजनीतिक और गैर-राजनीतिक हलचल भाजपा विरोधी रणनीतिकार नीतीश के किसी राजनीतिक कदम के कारण नहीं बल्कि जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में बिहार विधानसभा के भीतर दिए गए उस बयान को लेकर है जिसे सभी हलकों में अभद्र और अश्लील ठहराया गया है।
भारतीय राजनीति में नीतीश पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने भाषायी सामाजिक नैतिकता को आहत करने वाला बयान दिया हो। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष उनके नेताओं के लिए इन दिनों बयानों की अश्लीलता और अभद्रता एक सामान्य परिघटना के तौर पर स्थापित हो गई है।
वस्तुत: राजनीति में किसी बयान की अश्लीलता या मर्यादाविहीनता इस परिप्रेक्ष्य से भी तय होती है कि बयान देने वाला व्यक्ति किस कद या पद का है। अगर नीतीश कुमार जैसे कद्दावर नेता की जगह किसी छुटभैया नेता ने जनसंख्या नियंत्रण की यौन प्रक्रिया को समझाया होता तो शायद इतना हल्ला-गुल्ला नहीं मचता। क्योंकि नीतीश से मर्यादित भाषा की सामान्य अपेक्षा होती है। नीतीश अपने बयान में इसी अपेक्षा का अतिक्रमण कर गए जो उन्हें नहीं करना चाहिए था।
हालांकि उन्होंने अपने किए पर शर्मिदगी भी महसूस की, अपना बयान भी वापस लिया लेकिन तीर तो कमान से निकल चुका था। नीतीश के माफी मांग लेने के बाद उनके समर्थकों को उनके पक्ष में खड़े होने की जरूरत नहीं थी।
असफल सफाइयां देने के प्रयास में नीतीश के बयान को न केवल अधिक अभद्र बना दिया बल्कि उन्हें मानसिक संतुलन खो चुके व्यक्ति के रूप में भी चर्चित करा दिया। यौन प्रक्रिया संबंधी बयान के बाद उन्होंने वरिष्ठ नेता जीतन मांझी के विरुद्ध अभद्र और अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया, जिसमें इस बात की पुष्टि की कि नीतीश भाषा और मर्यादा में संतुलन बिठाने की अपनी क्षमता खो रहे हैं। इससे पहले कि कोई बड़ी दुर्घटना हो, नीतीश को संभल जाना चाहिए अन्यथा गरिमा के साथ राजनीति को अलविदा कह देना चाहिए।
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