साहसिक कूटनीति

Last Updated 28 Sep 2023 01:37:33 PM IST

भारत की कूटनीति शिखर पर है, यह प्रधानमंत्री का दोहराया गया दावा है। इस ‘ऊंचाई’ का तात्कालिक संदर्भ जी-20 में नौ से 10 सितम्बर को नई दिल्ली में दुनिया के ताकतवर राष्ट्राध्यक्षों-शासनाध्यक्षों के जमावड़े से है।


साहसिक कूटनीति

लेकिन इसके पीछे ‘विगत 30 दिनों में ही आधी से अधिक दुनिया देख आने’ और ‘85 से अधिक नेताओं से बातचीत’ का आधार हैं। सो यह कोरा जुमला नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदेश नीति पर नरेन्द्र मोदी की पीठ थपथपा ही चुके हैं। दुनिया भी देखती है कि हमारे विदेश मंत्री वैश्विक संस्थाओं को शालीनता के एक नए तेवर से संबोधित करते हैं। एस. जयशंकर कहते हैं कि ‘सारी दुनिया पर अपना एजेंडा थोपने और इसके जरिए हांकने के दिन लद गए।’ देश ने यह नोटिस किया है कि भारत की यह भंगिमा मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अति आत्मविश्वास से लबरेज हुई है। यह बिल्कुल नया भारत है-मानकर चलता हुआ कि यह समय भारत का है।

उसके इस आकलन से आज विश्व में किसी भी समझदार नेता को ऐतराज नहीं है। फिर चीन में भारत की कूटनीति बार-बार धराशायी क्यों हो जाती है? विदेश मंत्री को क्यों कहना पड़ता है कि ‘भारत-चीन संबंध एबनॉर्मल स्टेट में है’। पाकिस्तान की यही भी गति है। ये दोनों ‘ऑल वेदर फ्रेंड’ पचासों साल से भारतीय विदेश नीति की चुनौती बने हुए हैं। अब तो कनाडा भी इस कतार में खड़ा हो गया है। उसके प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के आरोप के बाद तो भारत से संबंध पटरी से उतर गए हैं।

हालांकि ट्रूडो की ही फजीहत हो रही है। वह अपने देश और मित्र देशों में अकेले पड़ने लगे हैं। यह क्या भारतीय कूटनीति की जीत नहीं है? एक सवाल तुर्की का है, जो जी-20 में सराहना करके ‘गलियारे’ पर मुड़क गया और कश्मीर पर पुराना राग गाने से बाज नहीं आया। ऐसे में प्रधानमंत्री कैसे दावा कर सकते हैं कि भारतीय कूटनीति का दुनिया में डंका बज रहा है?

पहली बात यह कि लोकतांत्रिक विश्व बहुमत से चलता है और इसका मानना है कि भारतीय विदेश नीति सीधी, साहसिक और प्रगतिगामी हुई है-इन वाकयात के बावजूद। मौसमी हवाओं से भारत का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। निज्जर मामले में अमेरिकी दगाबाजी के बाद कुछ लोग रूस को स्वाभाविक-स्थायी दोस्त बताते हुए वाशिंगटन से पल्ला झाड़ने की सलाह दे रहे हैं। वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों की परस्परता के सिद्धांत को भूल जाते हैं और इनके निर्धारक समय को भी।



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