सामाजिक ढांचा न बिगड़े
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का विरोध करके केंद्र ने ठीक ही किया है।
सामाजिक ढांचा न बिगड़े |
ऐसे विवाहों से व्यक्तिगत कानूनों और स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों का संतुलन बिगड़ने की आशंका गलत नहीं है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष दाखिल हलफनामे में सरकार ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के जरिये इसे वैध करार दिये जाने के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। केंद्र का यह कथन कितना समीचीन है कि विवाह, कानून के एक संस्था के रूप में, विभिन्न विधायी अधिनियमों के तहत कई वैधानिक परिणाम हैं।
इसलिए, ऐसे मानवीय संबंधों की किसी भी औपचारिक मान्यता को सिर्फ दो वयस्कों के बीच गोपनीयता का मुद्दा नहीं माना जा सकता है। अपने हलफनामे में केंद्र ने कहा कि भारतीय लोकाचार के आधार पर ऐसी सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करना और उसे लागू करना विधायिका का काम है। केंद्र ने कहा कि भारतीय संवैधानिक कानून न्यायशास्त्र में किसी भी आधार के बिना पश्चिमी निर्णयों को इस संदर्भ में आयात नहीं किया जा सकता है।
सच है कि समलैंगिक व्यक्तियों के बीच विवाह को न तो किसी असंहिताबद्ध कानून या किसी संहिताबद्ध वैधानिक कानूनों में मान्यता दी जाती है और न ही इसे स्वीकार किया जाता है। इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के बावजूद, याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं। केंद्र का यह तर्क कितना समसामयिक है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन हैं और इसे देश के कानूनों के तहत मान्यता प्राप्त करने के लिए समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए विस्तारित नहीं किया जा सकता है, जो वास्तव में इसके विपरीत है।
वस्तुत: विवाह/मिलन/संबंध तक सीमित विवाह की प्रकृति में विषमलैंगिक होने की मान्यता पूरे इतिहास में आदर्श है और राज्य के अस्तित्व और निरंतरता दोनों के लिए मूलभूत आधार है। इस स्थिति में कोई भी परिवर्तन पूरे सामाजिक ढांचे को बिगाड़ सकता है। इस मामले में आधुनिकता की होड़ में पश्चिम का अंधानुकरण करने की जरूरत नहीं है। बहरहाल वह मामला संविधान पीठ को चला गया है जो 18 अप्रैल से इसकी सुनवाई करेगी।
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