मीरा बाई चानू: भारोत्तोलक बनने के लिए सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाना पड़ा

Last Updated 26 Jul 2024 07:31:12 PM IST

सैखोम मीरा बाई चानू के लिए वेटलिफ्टिंग का सपना देखना आसान नहीं था। खासकर तब जब उनके पास प्रशिक्षण की उचित सुविधाएं नहीं हैं और उन्हें अपने सपने के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है।


इंफाल की वेटलिफ्टर सैखोम मीरा बाई चानू

ओलंपिक खेलों का उद्घाटन समारोह आज पेरिस में हो रहा है। इस प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए इंफाल की वेटलिफ्टर सैखोम मीरा बाई चानू पहुंची हैं। लेकिन अगर आप उनके ओलंपिक तक के सफर पर नजर डालेंगें तो आपकी आंखें नम हो जाएंगी। मेरी बाई का बचपन गरीबी में बीता। गरीबी इतनी है कि इस छोटी सी मासूम बच्ची को अपना पेट भरने के लिए लकड़ी चुननी पड़ती है, अपने परिवार की मदद के लिए उसे सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाना पड़ता है।

ट्रेनिंग के दिनों में मीरा बाई चानू के पास खाने के लिए पैसे नहीं थे, जिसके कारण डाइट चार्ट का पालन नहीं हो सका। लेकिन कहते हैं न कि अगर इंसान कुछ ठान ले तो उसके लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं है। सैखोम मीरा बाई चानू को आज कौन नहीं जानता? उन्होंने वैश्विक स्तर पर भारत का नाम रोशन किया है। पेरिस ओलंपिक तक उनका सफर आसान नहीं रहा। इसके लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। इम्फाल की सड़कों पर लकड़ी का गट्ठर ढोने वाली एक छोटी बच्ची आज पूरे देश के लिए प्रेरणा बन गई है।

8 अगस्त 1994 को मणिपुर की राजधानी इंफाल में जन्मी सैखोम मीरा बाई चानू का वेटलिफ्टिंग का सपना आसान नहीं था। खासकर तब जब उनके पास प्रशिक्षण की उचित सुविधाएं नहीं हैं और उन्हें अपने सपने के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन मीरा बाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ अपने लिए बल्कि लाखों युवाओं के लिए नई राह बनाई। बचपन में जब मीराबाई लकड़ियों के गट्ठर उठाती थीं, तब शायद उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि एक दिन वह भारत का नाम रोशन करेंगी। लेकिन आज उनकी कड़ी मेहनत और लगन ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है।

सैखोम मीराबाई चानू का कहना है कि बचपन में उन्होंने कंजरानी देवी को वेटलिफ्टिंग करते हुए देखा था, जिसके बाद वह इस खेल की ओर आकर्षित हुईं। उन्होंने अपने माता-पिता को वेटलिफ्टिंग करने की अपनी इच्छा के बारे में बताया। पहले तो उनके माता-पिता सहमत नहीं थे, लेकिन बाद में वे सहमत हो गये। इंफाल के पास एक छोटे से गांव में रहने वाली चानू के लिए वेटलिफ्टिंग आसान नहीं थी। गाँव में उनके लिए कोई सुविधा नहीं थी जिसके कारण उन्हें अभ्यास के लिए 50 किमी से अधिक की यात्रा करनी पड़ती थी।

मीरा बाई चानू ने महज 13 साल की उम्र में ट्रेनिंग शुरू कर दी थी। 2007 में उन्होंने प्रशिक्षण शुरू किया और 2011 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय युवा चैम्पियनशिप और दक्षिण एशियाई जूनियर खेलों में स्वर्ण पदक जीता। ठीक दो साल बाद उन्होंने जूनियर नेशनल चैंपियनशिप में सर्वश्रेष्ठ वेटलिफ्टर का खिताब भी जीता। इस बीच, 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक जीतने के बाद चानू का आत्मविश्वास आसमान छू गया।

मीराबाई चानू का कहना है कि रियो ओलंपिक की तैयारी के लिए गंभीर वित्तीय समस्याओं के बावजूद उन्होंने क्वालीफाई किया। हालाँकि वह रियो में सफल नहीं हुई, लेकिन विश्व चैंपियनशिप में उसकी बाद की जीत ने उसकी हार को ठीक कर दिया। अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए मीरा बाई चानू कहती हैं कि शुरुआत में उनके पास सुविधाओं का अभाव था। डाइट चार्ट में दूध और चिकन जरूरी था, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण हर दिन चार्ट का पालन करना संभव नहीं था। लंबे समय तक डाइट चार्ट का पालन नहीं किया गया लेकिन उन्होंने अपनी तैयारी जारी रखी और आज मीरा बाई चानू पेरिस ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

समय लाइव डेस्क
नई दिल्ली


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