मानव जाति पर कलंक है छुआछूत

Last Updated 14 Feb 2011 12:15:54 AM IST

जातिवाद अतात्त्विक है. छुआछूत मानव समाज के लिए कलंक है. ईश्वरवाद शाश्वत सत्य नहीं है.


देश का प्रबुद्ध वर्ग इन सब बातों को जानता है. वह यह भी समझता है कि पुराने मूल्यों के चौखटे में ऐसा कोई भी सिद्धान्त फिट नहीं हो सकेगा, जिसे आज की प्रबुद्ध युवा पीढ़ी अस्वीकृत कर रही है. फिर भी एक धर्मगुरु, जिनका काम लाखों लोगों को पथदर्शन देना है, कुछ असामयिक बातों को लेकर समाज में बावेला खड़ा करें, इसमें क्या आैचित्य है? माना कि उनकी अपनी अवधारणा ऐसी है, पर वे इसे पूरे समाज या देश पर आरोपित  कैसे कर सकते हैं?

हरिजनों के मंदिर-प्रवेश पर रोक लगाने की वकालत करने वालों ने एक दलील यह दी है कि चपरासी का काम चपरासी और प्रिंसिपल का काम प्रिंसिपल करेगा. चपरासी प्रिंसिपल का काम नहीं कर सकता यह बात सही है. किन्तु चपरासी प्रिंसिपल बन ही नहीं सकता, यह ध्रुववाद किस आधार पर टिकेगा? चपरासी का काम करने वाला व्यक्ति भी अपनी लगन और मेहनत से प्रिंसिपल की योग्यता पा सकता है. उच्च पदों पर कार्यरत अनेक व्यक्ति अपने बचपन में बहुत साधारण जीवन जीने वालों में से है. अनेक महापुरुष साधारण परिवेश में जी कर असाधारण बने हैं. ऐसी स्थिति में हरिजन-कुल में जन्म लेना ही किसी व्यक्ति या वर्ग की धार्मिकता में आड़े आए, यह बात समझ में नहीं आती.

किसी जाति या केवल क्रियाकाण्डों के आधार पर कोई धर्म चल सकता है, यह सिद्धांत गलत है. इससे धर्म के मूल पाये को ही खिसका दिया गया है. धर्म का पाया है चरित्र. चरित्र को गौण कर क्रियाकाण्डों को प्रमुखता देने वाले ही कह सकते हैं कि महाजन सब हरिजनों से श्रेष्ठ हैं. एक ओेर धर्म की श्रेष्ठता के नारे, दूसरी ओर उसके प्रति आस्था रखने वाले लोगों का खुला तिरस्कार, ऐसी विवादास्पद स्थिति में कोई भी हरिजन ऐसे धर्म से चिपककर क्यों रहेगा?

समाज में खुली प्रताड़ना से दुखी होकर कोई हरिजन धर्म परिवर्तन की बात करता है तो समाज में तहलका मच जाता है. जब तक धर्मगुरुओं का ऐसा दृष्टिकोण रहेगा, धर्म और समाज की छवि उजली नहीं हो सकती. हम समाज में जीते हैं. इसलिए समाज की स्थितियों से सर्वथा अनभिज्ञ भी नहीं रह सकते. जब भारत के संविधान में छुआछूत की भावना को अपराध माना गया है, तब इस भावना को प्रोत्साहन देने वाले वक्तव्यों से तनाव क्यों नहीं बढ़ेगा?

'कुहासे में उगता सूरज' से साभार

आचार्य तुलसी
धर्माचार्य


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