जीवन
पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं, जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत से सरीसृपों से भरी थी, सरकने वाले जानवरों से भरी थी, लेकिन आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पांच गुने और दस गुने बड़े थे। वे सब कहां खो गए?
इतने शक्तिशाली पशु पृथ्वी से कैसे विनष्ट हो गए? किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया? नहीं, उनके खत्म हो जाने की बड़ी अदभुत कथा है। उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे समाप्त हो जाएंगे। वे समाप्त हो गए अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण! वे इतने ज्यादा हो गए कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया।
भोजन कम हुआ, पानी कम हुआ, लिविंग स्पेस कम हुई, जीने के लिए जितनी जगह चाहिए, वह कम हो गई। उन पशुओं को बिलकुल आमूल मिट जाना पड़ा! ऐसी दुर्घटना आज तक मनुष्य-जाति के जीवन में नहीं आई है, लेकिन भविष्य में आ सकती है। आज तक न आई उसका कारण यह था कि प्रकृति ने निरंतर मृत्यु को और जन्म को संतुलित रखा है। दस आदमी पैदा होते थे बुद्ध के जमाने में, तो सात या आठ व्यक्ति उसमें जन्म के बाद मर जाते थे। दुनिया की आबादी कभी इतनी नहीं बढ़ी थी कि भोजन की कमी पड़ जाए, स्थान की कमी पड़ जाए।
फिर विज्ञान और आदमी की निरंतर खोज ने, और मृत्यु से लड़ाई लेने ने, वह स्थिति पैदा कर दी कि आज दस बच्चे पैदा होते हैं सुसंस्कृत, सभ्य मुल्क में, तो मुश्किल से एक बच्चा मरता। स्थिति बिल्कुल उलटी हो गई है। उम्र भी लंबी हुई। औसत उम्र अस्सी और बयासी वर्ष तक कुछ मुल्कों में पहुंच गई है। स्वाभाविक परिणाम जो होना था वह यह हुआ कि जन्म की दर तो पुरानी रही, मृत्यु की दर हमने कम कर दी। अकाल होते थे, अकाल बंद कर दिए। महामारियां आती थीं, प्लेग होता था, मलेरिया होता था, हैजा होता था, वे हमने कम कर दिए। हमने मृत्यु के बहुत से द्वार रोक दिए और जन्म के सब द्वार खुले छोड़ दिए।
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