विश्वास

Last Updated 20 Aug 2020 12:36:57 AM IST

ईश्वर में विश्वास क्यों आवश्यक है? इसलिए आवश्यक है कि उसके सहारे हम जीवन का स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझने में समर्थ होते हैं।


श्रीराम शर्मा आचार्य

ईश्वरीय विधान को अमान्य ठहरा दिया जाए तो फिर मत्स्य न्याय का ही बोलबाला रहेगा। आंतरिक नियंत्रण के अभाव में बाह्य नियंत्रण मनुष्य जैसे चतुर प्राणी के लिए अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। नियंत्रण के अभाव में सब कुछ अनिश्चित और अविस्त बन जाएगा। ऐसी दशा में हमें आदिमकाल की वन्य स्थिति में वापस लौटना पड़ेगा। शरीर निर्वाह करते रहने के लिए पेट प्रजनन एवं सुरक्षा जैसे पशु प्रयत्नों तक सीमित रहना पड़ेगा।

ईश्वर विश्वास ने आत्म नियंत्रण का पथ प्रशस्त किया है, उसी आधार पर मानवी सभ्यता का, आचार संहिता का, स्नेह-सहयोग एवं विकास-परिष्कार का पथ प्रशस्त किया है। मान्यता क्षेत्र से ईश्वरीय सत्ता हटा दी जाए तो फिर संयम, उदारता जैसी मानवी विशेषताओं को बनाए रखने का कोई दाशर्निक आधार शेष न रह जाएगा। तब चिंतन क्षेत्र में जो उच्छृंखलता प्रवेश करेगी, उसके दुष्परिणाम वैसे ही होंगे जैसे कथा गाथाओं में असुरों के नृशंस क्रियाकलाप का वर्णन पढ़ने-सुनने को मिलता है। ईश्वर अंधविश्वास नहीं एक तथ्य है। वि की व्यवस्था सुनियंत्रित है।

सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि सभी का उदय-अस्त क्रम अपने ढर्रे पर ठीक तरह चल रहा है, प्रत्येक प्राणी अपने ही जैसी संतान उत्पन्न करता है और हर बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है। अणु-परमाणुओं से लेकर समुद-पर्वतों तक की उत्पादन, वृद्धि एवं मरण का क्रियाकलाप अपने ढंग से ठीक प्रकार चल रहा है। शरीर और मस्तिष्क की संरचना और कार्यशैली देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

इतनी सुव्यवस्थित कार्यपद्धति बिना किसी चेतना शक्ति के अनायास ही नहीं चल सकती। उस नियंता का अस्तित्व जड़-चेतन के दोनों क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की दोनों कसौटियों पर पूर्णतया खरा सिद्ध होता है। समय चला गया जब अधकचरे विज्ञान के नाम पर संसार क्रम को स्वसंचालित और प्राणी को चलता-फिरता पौधा मात्र ठहराया गया था। अब पदार्थ विज्ञान और चेतना विज्ञान में इतनी प्रौढ़ता आ गई है कि नियामक चेतना शक्ति के अस्तित्व को बिना आनाकानी स्वीकार कर सकें।



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