साहस का शिक्षण
प्राचीन काल की ऋषि परम्परा के शिक्षण में ऐसी व्यवस्था रहती थी कि मनोभूमि को सबल, काया को समर्थ और सुदृढ़ बनाने के लिए वे सारे प्रयोग किए जाए जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हों।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
गुरुकुलों में ऐसा ही शिक्षण चलता था। तप और तितिक्षा का कठोर अभ्यास शिक्षार्थी से कराया जाता था ताकि भावी जीवन में आने वाले किसी भी संकट-चुनौती का सामना करने में वह समर्थ हो सके। गुरु कुलों में प्रवेश लेने तथा प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले छात्रों को अनुकूलताओं में नहीं, प्रतिकूलताओं में जीना सिखाया जाता था। उस शिक्षण प्रक्रिया का परिणाम यह होता था कि विद्यालय से निकलने वाला छात्र हर दृष्टि से समर्थ और सक्षम होता था। जीवन में आने वाले अवरोध उन्हें विचलित नहीं कर पाते थे। परिस्थितियां बदली और साथ में वह शिक्षण पद्धति भी। मनुष्य के चिन्तन में भारी हेर-फेर आया।
यह मान्यता बनती चली गई कि अनुकूलताओं में ही मनुष्य का सर्वागीण विकास सम्भव है। फलत: आरम्भ से ही बालकों को अभिभावक हर प्रकार की सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं। उन्हें तप तितीक्षामय जीवन का अभ्यास नहीं कराया जाता। यही कारण है कि जब कभी भी प्रतिकूलताएं प्रस्तुत होती हैं ऐसे बालक उनका सामना करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।
कुछ विद्यालय आज भी ऐसे हैं, जो जीवट को प्रखर बनाने का व्यावहारिक प्रशिक्षण देते हैं। उदाहरणार्थ ‘जंगल एण्ड स्नो सरवाइल स्कूल इंडियन एयर फोर्स’ की ओर से भेजे गये वायुयान चालकों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे वे हर तरह के संकटों का सामना करने में सक्षम हो सकें। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार शिक्षण की प्रणाली अत्यन्त रोमांचक होती है।
सामान्यतया विमान चालकों को हर तरह के क्षेत्र से होकर उड़ान भरनी होती है। हिमालय की ऊंचाई पर स्थित सघन वनों अथवा हिमाच्छादित प्रदेशों अथवा मरुस्थलों से होकर भी चालकों को गुजरना पड़ता है। यदि इन दुर्गम प्रदेशों में कोई दुर्घटना घटती है तो किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इसका शिक्षण एवं अभ्यास चालकों को कराया जाता है। इन स्थानों पर बिना किसी बाह्य सहायता के उसे किस तरह प्रतिकूलताओं से जूझते हुए बाहर निकलना चाहिये इसका प्रशिक्षण दिया जाता है।
Tweet |