ममता
स्वाधीन-चित्त केवल शांति दाता ही नहीं, शक्ति-दाता भी होता है। शक्ति सुख की जननी है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
उससे आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से निर्भयता का आविर्भाव होता है। अनुशासित चित्त का शक्ति भण्डार मनुष्य को इतना कार्य सक्षम बना देता है कि वह बड़े-बड़े विस्मयकारक कार्य कर सकता है। जीवन की सार्थकता एवं सफलता इस एक बात पर ही निर्भर रहती है कि वह कुछ ऐसे सत्कर्म कर सके, जिससे उसका तथा संसार का उपकार हो और उसकी आत्मा को एक शात सन्तोष मिले।
उसे जीवन अथवा मृत्यु दोनों स्थितियों में हर्ष की उपलब्धि हो। मनुष्य का चित्त सच्ची शक्तियों का आगार है। इस शक्ति-कोष का उद्घाटन तब ही होता है, जब चित्त अनुशासित तथा स्ववश होता है। चित्त की स्वाधीनता उसकी निर्दोषिता पर ही निर्भर है। मनुष्य के लिए अब यह बात अनजान नहीं रह गई है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए क्या करने में उसका कल्याण है और क्या करने में अकल्याण है। अशुद्ध चित्त के कारण बहुधा यह होता रहता है कि मनुष्य कल्याणकारी कार्य करना चाहता है किन्तु नहीं कर पाता।
प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं, जो अमांगलिक होते हैं। ऐसी दशा में पश्चाताप होना स्वाभाविक है। वह जानता है कि इस प्रकार के अवांछनीय कार्य उसको प्रगति पथ पर, सुख-शांति के महान मार्ग पर न बढ़ने देंगे, जिससे उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर व्यर्थ चला जाएगा और तब उसे आत्मोन्नति, आत्मकल्याण करने का अवसर न जाने कभी मिलेगा या नहीं। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अति दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग करके आत्मकल्याण का अधिकारी बन जाए।
किन्तु खेद है कि चित्त की अशुद्धता के कारण वह अपने इस महती उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। बहुधा लोग चित्त को चंचलता का ही वह दोष मान लेते हैं, जिसके कारण हम उसे स्ववश नहीं कर पाए। चित्त की चंचलता वस्तुत: उसका दोष नहीं है बल्कि यह असकी, छटपटाहट है, जो शुद्धि प्राप्त करने की लालसा एवं प्रयास से उत्पन्न होती है। नैसर्गिक नियम के अधीन चित्त स्वभावत: शुद्धि की ओर स्वयं गतिशील रहा करता है और जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिल जाती है एक ओर से दूसरी ओर को भागता रहता है।
Tweet![]() |