विचार
विचारणाओं और भावनाओं की उत्कृष्टता ही मानवीय उत्कर्ष का, अभ्युदय का प्रमुख आधार है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
जो इस तथ्य से भली-भांति अवगत हैं, वे अपनी चिन्तन-चेतना को सदैव ऊध्र्वगामी बनाए रखने का प्रय करते हैं। विचार शक्ति की महिमा से अनजान व्यक्तियों को जिस-तिस प्रकार अस्त-व्यस्त जीवन जीने को विवश होते और अविकसित मन:स्थिति में दम तोड़ते देखा जाता है। विचारों का स्तर विधेयात्मक या निषेधात्मक जैसा भी होगा, व्यक्तित्व भी तदनुरूप ढलता चला जाएगा। विधेयात्मक विचार प्रक्रिया को अपना कर ही आगे बढ़ा और ऊंचा उठा जा सकता है।
प्रगति एवं व्यक्तित्व की प्रखरता का सूत्र सादा जीवन तथा उच्च चिन्तन में ही निहित है। मनुष्य में एक विशिष्ट प्रकार की विचार ऊर्जा सतत प्रवाहित होती रहती है। यदि उसे विधेयात्मक एवं रचनात्मक दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जा सके तो मनुष्य सीमित एवं संकुचित दायरे से निकलकर अपने विराट् स्वरूप की झांकी आसानी से व्यक्त कर सकता है। जीवन दर्शन की समस्त संभावनाएं इसी ऊर्जा प्रवाह पर निर्भर करती हैं।
सामान्य से असामान्य बना सकने वाला जीवन तत्त्व इसी में विद्यमान है। काय-कलेवर, जिससे आचरण और क्रियाएं संपादित होती हैं, विचारों द्वारा ही संचालित होता है। उनके स्तर के अनुरूप ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जो व्यक्ति रचनात्मक विचारणाओं को जिस अनुपात में अपनाता, संजोता और सक्रिय करता चलता है, उतना ही वह सदाचारी, पुरुषार्थी और परमार्थी बनता जाता है। इसी आधार पर सुख-शांति के अक्षुण्ण बने रहने का आधार खड़ा होता है।
विचार प्रवाह के निम्नगामी होने पर व्यक्तित्व के विकास में विघ्न पहुंचता है। इस तरह की विचारधारा को ‘डिकोटोमस’ अर्थात् विकृत एवं विघटनकारी प्रवाह के नाम से भी जाना जाता है। इस मानसिक रुग्णता की स्थिति में अचिन्त्य चिंतन एवं अनौचित्यपूर्ण क्रियाकलाप के जाल में फंस जाना कोई आचर्य की बात नहीं है। अज्ञानता-अबोधतावश और असावधानी से ऐसा हो सकता है, किन्तु तथाकथित सभ्यों को जब ऐसा सोचते और आचरण करते देखा जाता है, जो मानवीय गरिमा और सभ्यता के अनुकूल नहीं होता, तब और भी अधिक आश्चर्य होता है।
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