प्रकृति पूजा
हे मानव! क्यों छोड़ दी तूने अपनी सहज सरल सामान्य साधारण स्वाभाविक प्रवृत्ति जो प्रकृति की सत्यम् शिवम् सुन्दरम् संस्कृति की परिचायक थी।
![]() प्रणाम मीना ऊँ |
क्यों ओढ़ ली ढोंग और पाखंड की चादर अत्याधुनिक बनने की चूहा दौड़ में भागीदार हो गया। सुख,भोग, साधन, सामग्री संग्रह की होड़ में भूल गया कि भोगेगा कब? इतना स्वकेंद्रित स्वार्थी लालची और भावविहीन हो गया कि अपने चारों ओर घटित अनाचार भ्रष्टाचार और प्रकृति से हो रहे दुराचार से कोई सरोकार ही नहीं रहा। प्रकृति पर विजय पाने के दंभ में भूल गया कि प्रकृति पर पूर्ण नियंत्रण और विजय असंभव है।
प्रकृति जैसा देवनहार कोई नहीं पर प्रकृति को अपने उत्तरोत्तर विकास व गति के मार्ग में कोई भी अवरोध मान्य नहीं। प्रकृति तो मानव जीव को पूर्णतया विकसित कर पूर्णता प्रदान करने को तत्पर है तुझे उसके इस ध्येय का तनिक भी ज्ञान नहीं है। जब तेरा रूपान्तरण और उत्थान कालचक्रानुसार रुक जाता है और तू स्वनिर्मित चक्रव्यूहों में फंसकर अपने मानव होने का उद्देश्य और आनंद विस्मृत कर देता है तो प्रकृति के अपने ही उपाय हैं तेरी बुद्धि और अहंकार को धरातल पर ले आने हेतु।
प्रकृति प्रकोपों और तांडव में भी तेरे ही हित वाली करुणा छुपी होती है। कोरोना कीटाणु का प्रकोप यही दर्शा रहा है। मानव को फैलाव समेटना समझ आ रहा है। आंतरिक और बाह्य शुद्धि का सुअवसर मिला है। सीमित साधनों में भी कैसे सुखी स्वस्थ संतुष्ट व शांत रहा जा सकता है। हे मानव! बाह्य भागदौड़, भीड़, चकाचौंध और अतिरंजित कृत्रिम वातावरण में तू कहीं खो गया था। प्रकृति का तो कर्म ही है अपूर्णताओं को बवंडरों से उखाड़कर तुझे राह सुझाकर उत्थान की ओर अग्रसर रखना।
कितने ही महापुरुष अवतरित हुए तुझे मार्गदर्शन देने; पर जब तक प्रकृति अपना रौद्र रूप नहीं दिखाती तब तक तू सुधरने के लिए संकल्पित नहीं होता। अब तुझे समझना ही होगा कि तू यहां पृथ्वी पर मधुरता सौहार्द प्रेम सौंदर्य सहयोग और आनन्दपूर्ण सहअस्तित्व के प्रसार के लिए ही प्रकृति की सवरेत्तम कृति है। धरती की प्रयोगशाला में प्रकृति ने मानव को निरंतर परिष्कृत होने के लिए ही उत्पन्न किया है। वास्तव में अब समय आ पहुंचा है सबको अपने वास्तविक सत्य रूप को समझने का, यह जानने का कि हम कहां पहुंच गए हैं?
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