भाईचारा
कितनी आसानी से आए दिन बहुसंख्यक शब्द का प्रयोग हिंदू धर्म के मानने वालों के लिए किया जाता है और अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर मुस्लिम धर्म को मानने वालों के लिए किया जाता है।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
यह प्रयोग यही दिखाता है कि धार्मिंक पहचान हमारे मन-मस्तिष्क में कितनी गहरी पैठी हुई है। . मनीषियों का तर्क है कि ‘मत भूलिए कि हम हिंदू हैं और हम हर धर्म का आदर करते हैं और यह सहिष्णुता ही हमारी पहचान है जो हमें औरों से अलग पहचान देती है’।
बस, यही मनोविज्ञान हमारी समस्या है, हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का फलसफा समझाने वाले अंत में अपने तथाकथित धर्म की विशिष्टता बताने का मोह नहीं छोड़ पाते। यही बात किसी मुस्लिम धर्म को मानने वाले ने कही होती तो इस तरह होती शायद, ‘मत भूलिए कि हम मुस्लिम हैं और कुरान पाक मानवता का पाठ पढ़ाती है, हमारी यही बात हमें औरों से अलग पहचान देती है’। एकता और भाईचारे की बात करते हुए कितनी खूबसूरती से अलग हो गए दोनों। इस विषय में ओशो के विचार बिल्कुल व्यावहारिक हैं।
तनिक ध्यान से सुनें, ओशो कहते हैं: ‘हिंदू मुस्लिम को भाई-भाई समझाने से ये धार्मिंक भेदभाव समाप्त नहीं होंगे। ऐसा करने से कुछ फायदा तो हुआ नहीं है, वरन नुकसान अधिक हुआ है। हिंदुस्तान के समझदार नेता हिंदू और मुसलमान को भाई-भाई होना न समझाते तो शायद पार्टीशन न होता। उसके कारण हैं। जब हमने पचास साल तक निरंतर कहा कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं। फिर भी हिंदू-मुसलमान साथ-साथ रहने को राजी नहीं हुए तो भाई-भाई के तर्क ने लोगों को ख्याल दिया कि अगर दो भाई साथ न रह सकें तो संपत्ति का बंटवारा कर लेना चाहिए।
गांधी जी ने हिंदुस्तान को मुसलमान-हिंदू के भाई-भाई की शिक्षा न दी होती तो पार्टीशन का लॉजिक ख्याल में भी नहीं आ सकता था। हम कभी नहीं कहते कि ईसाई-ईसाई भाई-भाई हैं। हम यह क्यों कहते हैं कि मुसलमान-हिंदू भाई-भाई हैं। यह ‘भाई-भाई’ का कहना जो है, खतरे की सूचना है। इससे पता चलना शुरू हो गया कि झगड़ा खड़ा है..’। इसका हल है कि हम प्रेम करें। प्रेम का पाठ पढ़ाएं, प्रेम का पाठ पढ़ें। क्योंकि, प्रेम शुरू पहले हो जाता है, पता पीछे चलता है-कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है। और जब एक बार प्रेम शुरू हो जाए तो हिंदू-मुसलमान दो कौड़ी की बातें हैं। उनको आसानी से फेंका जा सकता है। जहा प्रेम नहीं है, वहीं इन बातों का मतलब है।
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