चुनाव प्रदेशों का सवाल देश का

Last Updated 06 Mar 2021 12:42:36 AM IST

देश में स्कूली परीक्षाओं के साथ ही सियासी इम्तिहान का दौर भी शुरू होने जा रहा है। अगले दो महीने से भी कम समय में चार राज्यों और एक केंद्र-शासित प्रदेश का चुनावी नतीजा भी हमारे सामने आ जाएगा। लेकिन ऊंट किस करवट बैठेगा, इसके लिए हमारे देश में नतीजों का इंतजार करने की परंपरा कभी नहीं रही। इस बार भी नहीं है।


चुनाव प्रदेशों का सवाल देश का

एक तरफ सियासी दलों की ताल है तो दूसरी तरफ चुनावी पंडितों के अनुमान और इन्हें धार देते ओपिनियन पोल का गुणा-भाग है, जिसमें स्वाभाविक रूप से हर दल के लिए कुछ-न-कुछ सियासी प्रसाद है। इसमें बीजेपी असम और पुडुचेरी में आगे है, तो कांग्रेस केरल और तमिलनाडु में गठबंधन के आसरे है। लेकिन असल घमासान तो बंगाल को लेकर है, जहां तृणमूल और बीजेपी में तू डाल-डाल, मैं पात-पात का खेल चल रहा है। हालांकि रेस में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन समेत और भी कई दल शामिल हैं, लेकिन इनकी मौजूदगी खेलने से ज्यादा खेल बिगाड़ने वाली दिख रही है।

मूल बात यह है कि जिस बंग भूमि पर जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पैदा हुए, उस धरा को अपनी सियासी रंगभूमि बनाने का बीजेपी का दावा पहली बार इतना ‘शोनार’ दिखाई दे रहा है। बीजेपी खुद ‘शोनार बांग्ला’ देने के वादे के साथ चुनाव मैदान में उतरी है। अगर चुनाव से पहले दल-बदल हवा के रु ख को भांपने का कोई पैमाना है, तब तो इस बार बंगाल पर जादू चलाने के बीजेपी के दावे और पहली ‘भगवा’ सरकार के उसके वादे में ज्यादा फर्क नहीं दिखता। चुनाव से पहले तृणमूल के कई नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं, और यह गिनती लगातार जारी है। साल 2011 में भी कुछ ऐसा ही माहौल था। लेकिन तब हवा लेफ्ट से तृणमूल की ओर थी और इस हवा पर सवार होकर वामदलों के कई नेता तृणमूल के खेमे में पहुंच गए थे।

तो क्या 10 साल बाद बंगाल फिर उसी इतिहास को दोहराने जा रहा है? अभी ऐसा कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि तीन साल पहले तक जो जमीन बीजेपी के लिए बंजर थी, आज वहां खुद को कांटे की टक्कर में ले आना भी किसी जंग को जीतने से कम नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव की नाकामी को बीजेपी नेतृत्व ने महज दो साल बाद हुए लोक सभा चुनाव में अवसर में बदल दिया। यह संयोग कम दिलचस्प नहीं है कि विधानसभा चुनाव में कुल तीन सीटें जीतने वाली बीजेपी लोक सभा चुनाव में तृणमूल से महज तीन फीसद वोट से पीछे रही। इसे आंकड़ों में बदलें, तो अगर तृणमूल के हाथ 152 सीटें आती, तो 126 सीटों पर बीजेपी ने भी अपना परचम फहराया होता।

बंगाल में भाजपा का नहीं कोई चेहरा  
लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह अभूतपूर्व सफलता दरअसल, बीजेपी की प्रादेशिक इकाई की कोशिशों से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे का नतीजा थी। दो साल बाद राज्य में हालात ज्यादा नहीं बदले हैं, और राज्य स्तर पर बीजेपी के पास आज भी कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो ममता बनर्जी को टक्कर दे सके। बीजेपी का चुनाव प्रचार एक तरह से इसकी सबसे बड़ी स्वीकारोक्ति भी है। चुनाव की कमान प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को संभालनी पड़ रही है, और ममता के परिवार पर निजी हमलों को अलग कर दिया जाए, तो इस प्रचार में क्षेत्रीय मुद्दों से ज्यादा जोर केंद्र सरकार की सफलताओं, राम के नाम और तुष्टीकरण की आड़ में हिंदुओं के कथित अपमान जैसे राष्ट्रीय मुद्दों का दिख रहा है। दूसरी तरह ममता बनर्जी खुद को बंगाल की बेटी बताकर इस लड़ाई को ‘बंगाली बनाम बाहरी’ बनाने का भरसक प्रयास कर रही हैं। बंगाल के महानायकों से खुद को जोड़कर दिखाने की बीजेपी की कोशिशों को ममता की रणनीति की काट के तौर पर ही देखा जा रहा है।

और यह सब इसलिए क्योंकि इस बार बंगाल की लड़ाई में बीजेपी के लिए दांव पर बहुत कुछ लगा है। लगभग समूचे पूर्वी भारत में अपना डंका बजाने के बावजूद बंगाल में जीत की शहनाइयां अब तक बीजेपी के लिए सपना बनी हुई हैं। बेशक, बीजेपी के सामने ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाले हालात न हों, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की जबर्दस्त लोकप्रियता, गृह मंत्री अमित शाह की जोरदार चुनावी जमावट और इतने व्यापक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद अगर बीजेपी जीत से दूर रह जाती है, तो भविष्य में बंगाल जीतने की उम्मीदें भी दूर हो जाएंगी। बड़ा खतरा यह होगा कि विधानसभा चुनाव में ममता की जीत हथियार डाल चुके विपक्ष के लिए लोक सभा चुनाव में संजीवनी का काम भी कर सकती है। ममता के रूप में विपक्ष की उस नेता की तलाश खत्म हो सकती है, जो 2024 में प्रधानमंत्री के सामने खड़ा हो सके। केवल इतना ही नहीं, चुनाव में जीत महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था से जुड़े सवालों की हवा निकाल सकती है, तो हार की हवा इन सवालों की चिंगारी को भड़का भी सकती है। वहीं, सरकार के लिए कृषि सुधार के लिए लाए गए कानूनों और एनआरसी-सीएए जैसे मुद्दों पर आगे बढ़ना भी आसान नहीं रह जाएगा।

कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने का प्रण
चुनावी राज्यों में अपने खिलाफ किसानों के प्रचार की धमकी के बावजूद सरकार ने जिस तरह कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने का पण्रजताया है, उसी तरह वो एनआरसी-सीएए को लागू करने का संकल्प भी दोहरा रही है। पश्चिम बंगाल के दौरे पर गृह मंत्री अमित शाह ने साफ कहा है कि कोरोना वैक्सीनेशन के सुचारु  होते ही सीएए को लागू करने को लेकर निर्णय लिया जाएगा। यह अलग बात है कि बंगाल और असम में सीएए को लेकर एक-दूसरे से विरोधी माहौल है, जो एक राज्य में फायदा, दूसरे में नुकसान की वजह बन सकता है। लिहाजा, बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनने दिया है।

असम पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है, और इस लिहाज से भी बीजेपी के लिए महत्त्वपूर्ण है कि पिछले विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस के 10 साल के शासनकाल का अंत कर बीजेपी ने पूर्वोत्तर के किसी राज्य में पहली बार सरकार बनाई थी। यहां मुकाबला तीन गठबंधनों में है, जिनमें बीजेपी गठबंधन को साफ तौर पर बढ़त दिखती है, क्योंकि उसका विरोधी वोट कांग्रेस महागठबंधन और तीसरी शक्ति के तौर पर उभरे रायजोर दल और असम जातीय परिषद गठबंधन के बीच बंटने जा रहा है क्योंकि दोनों ही गठबंधन सीएए को मुद्दा बना कर चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस के लिए यहां मुस्लिम संगठन एआईयूडीएफ से हाथ मिलाना गले की हड्डी बन गया है, क्योंकि आरडी-एजीपी गठबंधन इसे ही कांग्रेस से दूरी बनाने की वजह बता रही है।

ऐसे में देश भर में सिकुड़ती जा रही कांग्रेस अब दक्षिण की ओर उम्मीद से देख रही है, जो ऐन चुनाव से पहले पुडुचेरी में सरकार गिर जाने के बाद फिलहाल कांग्रेस मुक्त हो गया है। ऐसे में राहुल गांधी का ‘उत्तर-दक्षिण’ वाला बयान यहां कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की रणनीति का हिस्सा लगता है। हालांकि यह भी आसान नहीं दिख रहा है। खासकर केरल की लड़ाई बड़ी विचित्र हो गई है, जहां कांग्रेस उसी लेफ्ट के सामने खड़ी है, जिसके साथ उसने बंगाल में हाथ मिलाया हुआ है। अपने प्रदशर्न से ज्यादा कांग्रेस केरल के उस इतिहास के भरोसे दिख रही है, जिसमें 1977 के बाद कोई भी पार्टी लगातार दो बार सरकार नहीं बना पाई है। वहीं तमिलनाडु की 234 विधानसभा सीटों में भी द्रमुक कांग्रेस को 30 से ज्यादा सीटें देने के मूड में नहीं दिख रही है, और इसमें भी उसे गठबंधन के दूसरे सहयोगी एमएमके और आईयूएमएल को एडजस्ट करना होगा यानी तमिलनाडु में जीतने के बाद भी कांग्रेस के लिए हाल ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ वाला ही रहने वाला है। विधायकों के पाला बदल के बाद पुडुचेरी भी कांग्रेस के हाथ से खिसकता ही दिख रहा है। एक तरह से कांग्रेस की हालत वामपंथ की तरह होती दिख रही है, जो त्रिपुरा और बंगाल गंवाने के बाद अब केवल केरल में सिमट कर रह गया है। इसलिए केरल की लड़ाई उसके लिए ‘करो यो मरो’ की लड़ाई बन गई है।

साफ तौर पर पुडुचेरी समेत चारों राज्यों में हालात इतने दिलचस्प हैं कि उससे राष्ट्रीय राजनीति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी। बीजेपी अगर असम को बचाकर बंगाल जीतने में भी कामयाब हो जाती है, तो देश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की नई ऊंचाई देखेगा। सरकार मजबूती के साथ एनआरसी-सीएए, कृषि सुधार जैसे एजेंडे आगे बढ़ा सकेगी, वहीं अगले साल चुनाव में जा रहे उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य में बीजेपी की स्थिति और सुदृढ़ हो जाएगी। इससे उलट नतीजे सरकार को भले कमजोर न करें, लेकिन उसके खिलाफ आवाज मुखर हो सकती है, कई और मोर्चे पर आंदोलन शुरू हो सकते हैं। यह विपक्ष को नई संजीवनी देगा, खासकर कांग्रेस को, जिसके लिए अब हर नया चुनाव उसे हाशिए पर धकेलने का नया खतरा लेकर आता है।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment