गुत्थी कितनी सुलझी?
गलवान पर कबूलनामे को क्या चीन के हृदय परिवर्तन का संकेत माना जा सकता है? झड़प के आठ महीने बाद ही सही, चीन ने आखिरकार अपने नुकसान को कबूल किया है।
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आपसी संघर्ष में चीन आम तौर पर अपने नुकसान को इस तरह से सार्वजनिक स्तर पर स्वीकार नहीं करता है। इस स्वीकारोक्ति की टाइमिंग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस समय दोनों देशों में समझौते के तहत पूर्वी लद्दाख में भारत और चीन की सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया का निर्णायक चरण चल रहा है। चीन जिस तेजी से अपने तंबू उखाड़ कर पैंगोंग से से पीछे हट रहा है, उससे यही लग रहा है कि यह चरण जल्द ही पूरा भी हो जाएगा।
हालांकि गलवान में नुकसान को पांच अफसरों-सैनिकों की मौत तक सीमित रखकर चीन ने आधे सच पर पर्दा डालने वाला काम भी किया है। लेकिन यह आधा सच भी उस समझौते को पूर्ण करने के लिहाज से काफी है, जिसके कारण पहली बार चीन का विस्तारवादी मंसूबा परवान नहीं चढ़ पाया। भारी-भरकम हथियारों के साथ एलएसी से चीनी सेना की वापसी की तस्वीरें दुनिया भर में यही संदेश दे रही हैं कि ड्रैगन को इस बार लक्ष्य हासिल किए बिना खाली हाथ वापस लौटना पड़ रहा है। सर्दियां खत्म होने से पहले ही चीनी सेना की वापसी एक तरह से इस बात की भी स्वीकारोक्ति है कि भारतीय सेना के मुकाबले उसके सैनिक-अफसरों में लद्दाख की विषम परिस्थितियों में लंबे समय तक डटे रहने का माद्दा नहीं है।
नहीं हुआ चीन का सोचा
राजनीतिक और कूटनीतिक नजरिए से भी देखा जाए, तो चीन की मंशा ऐसे हालात पैदा करने की थी, जिनसे कि भारत को अमेरिका के साथ प्रगाढ़ हो रहे संबंधों पर नये सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया जा सके, लेकिन हो गया ठीक इसका उल्टा। दोनों पक्षों के बीच के राजनीतिक और कूटनीतिक विवाद को भारतीय नेतृत्व ने जिस कुशलता के साथ संभाला, उससे भारत और अमेरिका का आपसी जुड़ाव और मजबूत हो गया। जहां चीन क्वॉड में शामिल प्रत्येक सदस्य देश के लिए चुनौतियां खड़ी कर इस समूह के मृतप्राय होने का ऐलान करने का मौका तलाश रहा था, वहीं भारत के इस पलटवार ने क्वॉड में नई जान फूंक दी है। एक तरफ क्वॉड के सदस्य देशों के बीच समुद्री अभ्यास और संवाद फिर नियमित हो गया है, तो दूसरी तरफ नेतृत्व परिवर्तन के बावजूद अमेरिका और भारत के संबंधों में भी एक नई गर्मजोशी देखने को मिल रही है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने भारत को नाजुक स्थिति झेल रहा सहयोगी बताया है। जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद क्वॉड देशों के विदेश मंत्रियों की पहली बैठक से ऐन पहले पेंटागन ने कहा है कि भारत इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का वो अकेला देश है, जो हर तरह की चुनौतियों का बखूबी सामना कर रहा है।
इस घटनाक्रम का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पाकिस्तान को गया संदेश भी है। चीन के संबंध में बीते दस महीने बेशक, बेहद तनावपूर्ण रहे हों, लेकिन पाकिस्तान लाख कोशिशों के बावजूद जम्मू-कश्मीर में किसी बड़ी घटना को अंजाम नहीं दे पाया। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी भी हो सकती है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में जिस तरह स्थिरता का दौर लौटा है, उससे भारतीय सेना को जल्द ही दोनों मोचरे पर अपनी जमावट को और संतुलित करने का अच्छा अवसर मिल सकता है। एक बड़ा सकारात्मक परिवर्तन यह हुआ है कि पहली बार चीन के साथ वार्ता में सैन्य नेतृत्व को भी यथोचित सम्मान के साथ भागीदार बनाया गया है। इसने हमारी सेना को अपने रण-कौशल के साथ ही रणनीतिक संचालन की क्षमता दिखाने का मौका भी दिया है, जो भविष्य में चीन के साथ शांति बहाली के लिए होने वाले मोल-भाव में सेना को नया भरोसा देगा।
चीन कितना पालन करेगा शर्तो का
हालांकि ऐसे तमाम सकारात्मक घटनाक्रमों के बावजूद यह कहना मुश्किल है कि चीन समझौते की शतरे का किस हद तक पालन करेगा? बॉर्डर से जुड़े किसी भी करार को लेकर चीन पर आंख मूंद कर ऐतबार नहीं किया जा सकता। लद्दाख को लेकर चीन का विस्तारवाद आज उस हद को पार कर चुका है, जो पहले साठ और फिर नब्बे के दशक में तय किया गया था। बेशक, उसके बाद भारतीय जमीन में अतिक्रमण करने का चीन का मंसूबा कामयाब नहीं हो पाया हो, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि इससे भारतीय गश्त का दायरा भी सीमित हुआ है। एलएसी पर चीन की चालाकियों पर जानकारों का एक और नजरिया है। वो यह कि चीन को लगता है कि लद्दाख से लेकर अरु णाचल तक तनाव बरकरार रखने से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र से भारत का ध्यान भटकाया जा सकता है, जहां दरअसल भारत उसके हितों को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए एलएसी पर शांति वाले पुराने दौर और भारत-चीन के बीच नये संबंधों की डोर की उम्मीद करना फिलहाल जल्दबाजी हो सकती है। ऐसे में यह जरूरी होगा कि पिछले कुछ महीनों से चली आ रही चीन की कूटनीतिक, सामरिक और आर्थिक घेराबंदी को आगे भी इतनी ही सख्ती के साथ जारी रखा जाए। इसी चौतरफा रणनीति के दम पर हमने सैन्य मुकाबले में चीन को तो पटखनी दी ही, साथ ही आर्थिक मोर्चे पर भी उसे कड़ा सबक सिखाया है। चीन से आयात को सीमित करने और उसके ऐप पर हुई डिजिटल स्ट्राइक से चीन को साफ संदेश मिला कि भारत अब उसे उसकी गलतियों के लिए माफ नहीं करने वाला। एलएसी पर गतिरोध को लंबा खींचने की चीन की मंशा का भी भारत ने जिस तरह डटकर जवाब दिया, उसने चीन की गलतफहमी को दूर करने का काम किया है।
भारत की इच्छाशक्ति का जलवा
यह भी गौर करने वाली बात है कि ऐसे तमाम विकल्प पहले से भी मौजूद थे, लेकिन शायद उन पर अमल करने की इच्छाशक्ति का अभाव था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में रक्षा और विदेश मंत्रालय ने जब वो इच्छाशक्ति दिखाई तो उसका असर भी साफ तौर पर दिखाई दिया। आत्मनिर्भर भारत की सोच ने इस अभियान को नई करवट दी, तो बदलाव का संदेश पूरी दुनिया को भी गया कि तुलनात्मक रूप से संसाधनों की कमजोर उपलब्धता के बावजूद चीन की दादागीरी का मुकाबला किया जा सकता है।
लेकिन हमें अभी भी चौकस रहने की जरूरत है। डिसएंगेजमेंट अभी खत्म नहीं हुआ है। इस प्रक्रिया में चार चरण शामिल हैं, और अभी पैंगोंग के उत्तरी और दक्षिणी तटों से हथियारबंद वाहनों की वापसी वाला दूसरा और तीसरा चरण चल रहा है। इसके बाद कैलाश रेंज को खाली करने की बारी आएगी। चारों चरण पूरे हो जाने के 48 घंटे बाद दोनों पक्षों के बीच देपसांग, गोरा, हॉट स्प्रिंग और गलवान को लेकर चर्चा होगी यानी अभी भी लंबा सफर बाकी है, और हमें यह तय करना होगा कि किसी भी चरण में चीन को चालाकी का मौका न दिया जाए।
इस पर तस्वीर आने वाले समय में ही साफ होगी, लेकिन इतना तय है कि इस घटनाक्रम ने चीन के आक्रामक विस्तारवाद को बड़ा झटका दिया है, और दुनिया में भारत के सम्मान को बढ़ाया है। इन सब के बीच भारत ने किसी भी तरह के बड़बोलेपन में उलझने के बजाय पूरी गरिमा दिखाई है, और खुद को एक परिपक्व और जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत किया है। जिस तरह बीते दस महीनों में भारत की सैन्य, राजनीतिक और कूटनीतिक क्षमता को पूरी दुनिया ने सराहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मुश्किल दौर में भारत के इस संतुलित रु ख का भी दुनिया सम्मान करेगी।
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