गणेश शंकर विद्यार्थी : पत्रकारिता के बलिदानी नायक
गणेश शंकर विद्यार्थी (Ganesh Shankar Vidyarthi) पत्रकारिता जगत के ऐसे महान पुरोधा थे, जिनकी लेखनी से ब्रिटिश सरकार इस कदर भयभीत रहती थी कि क्रांतिकारी लेखन के लिए उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा पांच बार सश्रम कारावास और अर्थदंड की सजा दी गई।
![]() गणेश शंकर विद्यार्थी : पत्रकारिता के बलिदानी नायक |
उनके लेखों में ऐसी गजब की ताकत थी कि उनकी पत्रकारिता ने ब्रिटिश शासन की नींद हराम कर दी थी। जब उनकी कलम चलती थी तो ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिल जाती थी।
बेमिसाल क्रांतिकारी पत्रकारिता के कारण ही गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार ‘प्रताप’ आज के दौर में भी पत्रकारिता जगत के लिए आदर्श माने जाते हैं। 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में एक स्कूल हेडमास्टर जयनारायण के घर जन्मे विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू तथा अंग्रेजी में हुई। इलाहाबाद में शिक्षण के दौरान ही उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ।
हिन्दी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के सम्पादन में वे पंडित सुन्दर लाल की सहायता करने लगे। कानपुर में अध्यापन के दौरान उन्होंने कर्मयोगी सहित कई और अखबारों में लेख लिखे और पत्रकारिता के जरिये स्वाधीनता आन्दोलन से गहरे जुड़ गए। कुछ समय बाद उन्होंने पत्रकारिता, सामाजिक कार्य तथा स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ाव के चलते ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपना लिया और गणेश शंकर से ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ हो गए।
ब्रिटिश शासनकाल की उत्पीड़न और अन्याय की क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना उनकी पत्रकारिता का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग था, जो ब्रिटिश हुकूमत को फूटी आंख न सुहाई और इसीलिए अपनी इसी क्रांतिकारी पत्रकारिता का खामियाजा उन्हें कई मुकदमों, भारी जुर्माने और कई बार जेल जाने के रूप में भुगतना पड़ा। 1920 में उन्होंने ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण निकालना शुरू कर दिया, जो मूलत: किसानों, मजदूरों और पीड़ितों का हिमायती समाचारपत्र बना रहा। उन्होंने ‘प्रताप’ के अलावा ‘प्रभा’ नामक एक साहित्यिक पत्रिका तथा एक राजनीतिक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन किया। घटना जनवरी 1921 की है, जब रायबरेली के एक ताल्लुकदार सरदार वीरपाल सिंह ने किसानों पर गोलियां चलवाई थी।
‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने उस घटनाक्रम का पूरा विवरण अपने अखबार में छापा, जिसके लिए उन्हें तथा ‘प्रताप’ छापने वाले शिवनारायण मिश्र पर मानहानि का मुकदमा दर्ज किया गया और उन्हें जेल हो गई। 16 अक्टूबर 1921 को विद्यार्थी जी ने स्वयं गिरफ्तारी दी और 22 मई 1922 को जेल से रिहा हुए। जेल में रहते हुए उन्होंने एक डायरी लिखी और रिहाई के बाद उन्होंने उसी पर आधारित ‘जेल जीवन की झलक’ नामक एक ऐसी श्रृंखला छापी, जिसे अत्यधिक पसंद किया गया और ‘प्रताप’ के साथ पाठकों का काफिला जुड़ता गया।
उसके बाद तो अंग्रेजों ने उन्हें वक्त-बेवक्त लपेटने का कोई अवसर नहीं छोड़ा, लेकिन विद्यार्थी अपने क्रांतिकारी विचारों से जरा भी नहीं डिगे। जेल से रिहाई के कुछ ही समय बाद भड़काऊ भाषण देने के आरोप में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने फिर गिरफ्तार कर लिया और 1924 में तब रिहा किया गया, जब उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था। स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग कर रहे थे, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने दोनों समुदायों की भावनाओं को भड़काने का ऐसा खेल खेला कि जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे भड़कने लगे और देशभर में सांप्रदायिक हिंसा फैलने लगी।
कानपुर शहर भी सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस उठा। गणेश शंकर विद्यार्थी का मन इन दंगों से बड़ा व्यथित हुआ और वे स्वयं इन दंगों को रोकने तथा दोनों समुदायों में भाईचारा कायम करने के लिए लोगों को समझाते हुए घूमने लगे। कई जगहों पर वे लोगों को समझाने में सफल भी रहे और इन दंगों के दौरान उन्होंने हजारों लोगों की जान बचाई भी, लेकिन वे स्वयं दंगाइयों की एक ऐसी टुकड़ी में फंस गए, जो उन्हें पहचानते नहीं थे। उसके बाद उनकी बहुत खोज की गई किंतु वे कहीं नहीं मिले। आखिर में उनका पार्थिव शरीर एक अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला।
हजारों लोगों की जान बचाने के बावजूद विद्यार्थी स्वयं धार्मिंक उन्माद की भेंट चढ़ गए और इस प्रकार 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने के दो ही दिन बाद देश ने 25 मार्च 1931 को अपनी कलम की ताकत से ब्रिटिश हुकूमत की रातों की नींद उड़ाने वाला निर्भीक, निष्पक्ष, ईमानदार, यशस्वी व क्रांतिकारी पत्रकार भी खो दिया। 27 अक्तूबर 1924 को विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ में ‘धर्म की आड़’ शीषर्क से लेख में लिखा था, ‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं।’ वह गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे, जिन्होंने श्याम लाल गुप्त पाषर्द लिखित गीत ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ को जलियांवाला हत्याकांड की बरसी पर 13 अप्रैल 1924 से गाया जाना शुरू करवाया था। ऐसे क्रांतिकारी पत्रकार और महान स्वाधीनता सेनानी को उनके बलिदान दिवस पर शत-शत नमन।
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