विकास कार्य : क्या सही से खर्च होते हैं पैसे

Last Updated 21 Oct 2024 01:09:09 PM IST

बंजर भूमि, मरूभूमि और सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंद्र सरकार हजारों करोड़ रुपया प्रांतीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिलीभगत से सारा पैसा डकार जाते हैं।


झूठे आंकड़े प्रांत सरकार के माध्यम से केंद्र सरकार को भेज दिए जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किए गए, वो सब कितने सच्चे हैं।

दरअसल, यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपया इसी तरह वर्षो से प्रांतीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का यह कथन अब पुराना पड़ गया कि केंद्र  के भेजे एक रुपये में से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पाएगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर पिछले 70 वर्षो में कितने करोड़ रुपये का विकास किया जा चुका है।

सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुंडों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियंत्रण, स्वास्थ्य सेवाएं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रुपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता और  माफिया हजारों गुना तरक्की कर चुके हैं। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवाद को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है।

केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल और अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते। जिले में योजना बनाने वाले सरकारीकर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाए। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए ये नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते हैं। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाएगा।

यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेंटीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते हैं। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते हैं, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाड़े के बयान लगातार धमाकेदार छपते हैं। इन भ्रष्ट अफसरों और निर्माण कंपनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपये की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धंस जाते हैं, या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली सड़क मागरे पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियां भी धंस गई और रेल दुर्घटना हुई।

उधर जिले से लेकर प्रांत तक और प्रांत से लेकर केंद्र तक प्रोफेशनल कंसलटेंट का एक बड़ा तंत्र खड़ा हो गया है। यह कंसलटेंट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते हैं, और उसमें से 90 फीसद तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन में लौटा देते हैं। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किए, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किए केवल खानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्ययोजना) बना देते हैं।

फिर चाहे जेएनआरयूएम हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की, सबमें फर्जीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊंचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएं खूब बनती हैं, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते। आज के सूचना क्रांति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हद तक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा।

निगरानी का यही काम देश भर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाए तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं, बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रांति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएं वेबसाइट पर डाल दें और उन पर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें।

जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाए। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएं ही केंद्र सरकार और राज्य को भेजी जाए। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जाएं जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतंत्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरु द्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहे वो केंद्र की हो या प्रांतों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जाएगी। देश और प्रांत की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देश भर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाए। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्यपूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूंकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तों अपने पांव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएंगे?
(लेख में विचार निजी हैं)

विनीत नारायण


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