विमर्श : मुट्ठी भर ने ही बदला है इतिहास

Last Updated 21 Oct 2024 01:04:33 PM IST

सैकड़ों साल पहले ही भारत में लिख दिया गया था ‘कोउ नृप होय हमें का हानि’। इससे भारत की मिट्टी का मूल चरित्र सिद्ध होता है।


कुछ लोग कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने मुगल राज स्थापित होने के बाद यह लिखा था, राम के युग में ही संपूर्ण जनता किसी गलत के खिलाफ खड़ी हो गई हो ऐसा तो नहीं दिखा। चाहे राम को राजा बनने से रोकना हो या सीता की अग्नि परीक्षा। विस्तार में जाना विवाद पैदा कर सकता है।

कृष्ण युग में कंस हत्याएं करता जा रहा था पर कहां कोई आवाज उठी कि यह गलत है। अशोक के काल में भी कहां जनता ने कुछ भी कहा। जनता हमेशा ताकत और सत्ता की अनुगामिनी ही बनी रही वरना सैकड़ों की तादाद में आते थे विदेशी लुटेरे और लूट कर चले जाते थे भारत को। कोई आता तो खेती करता किसान हल-बैल लेकर किनारे खड़े होकर तमाशा देखता और बाकी लोग भी। लड़ता सिर्फ वो था जिसे लड़ने के पैसे मिलते थे और ज्यादातर वो भी सेनापति के घायल होने या मर जाने पर भाग खड़े होते या विजेता से मिल कर उनके लिए लड़ने लगते।

भारत पर आक्रमण करने वाला या राज करने वाला कोई भी बड़ी फौज लेकर नहीं आया था। सबकी लड़ाई और राज भारतीय लोगों के दम पर ही चले। भारत के नागरिक पर जुल्म या हत्या सब यहीं के लोगों ने किया या तो डर कर या बिक कर और विदेशियों को बुलाकर लाने वाले भी भारतीय थे, रास्ता बताने वाले या कमजोरी बताने वाले भी भारतीय थे। जब सोमनाथ को लूटा जा रहा था तो वहां के सारे पंडे और दर्शनार्थी बैठ कर पूजा करने लगे कि अभी भगवान का प्रकोप होगा और सब लुटेरे भस्म हो जाएंगे। पर वो करने की  बजाय उन्होंने अपने थाली-लोटे से भी आक्रमण कर दिया होता तो सोमनाथ नहीं लुटा होता, भगवान की मूर्ति और मंदिर की शक्ति का भ्रम भी बना रहता और लुटेरे टुकड़ों में मुर्दा पड़े होते और उससे भी बड़ा काम यह हुआ होता कि आइंदा कोई भी भारत पर आक्रमण करने से पहले सौ बार सोचता कि भारत का या उसके किसी भी हिस्से का हर आदमी अपने राज या जमीन के लिए लड़ने को खड़ा हो जाता है।

आगे भी पूरा देश तो कभी खड़ा नहीं हुआ, बल्कि थोड़े से लोग खड़े हुए किसी भी लड़ाई में वो आंदोलन चाहे आजादी का रहा हो और चाहे आपातकाल से पहले का। जिन लोगों ने भी हिंसा का रास्ता अपनाया उनके साथ कम लोग खड़े हुए। गांधी जी इस मिट्टी की तासीर को अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए उन्होंने अहिंसा का रास्ता अपनाया और इस रास्ते से वो लाखों या करोड़ों को जोड़ने में कामयाब हुए पर वो भी पूरे देश को नहीं जोड़ पाए। अंग्रेजों के समय भी पूरी जनता तो इसी कोऊ नृप वाले भाव की थी तो बहुत से लोग अंग्रेजों का साथ दे रहे थे, बहुत से प्रशंसक थे तो हाथों में हथियार लेकर जलियांवाला बाग से होकर पूरे देश में गोली लाठी चलाने वाले, आजाद को गोली मारने वाले, भगत सिंह को फांसी लगाने वाले और सुभाष की सेना पर गोली बरसाने वाले सब तो भारतीय ही थे। केवल आदेश देने वाला अंग्रेज होता था और मुखबिरी कर आजादी के लिए लड़ने वालों की पकड़वाने वाले भी भारतीय ही थे। सभी के खिलाफ अंग्रेजों के पक्ष में मुकदमा लड़ने वाले भी भारतीय थे और गवाही देने वाले भी भारतीय ही थे।

आज भी वही हालत है जो भारत की तासीर है। आज भी सोमनाथ की तरह देश का बड़ा हिस्सा मंदिर में अपना सुख और भविष्य देख रहा है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जरा किसी धार्मिंक स्थल को कुछ हो जाए, किसी के चित्र या प्रतिमा से कुछ हो जाए या दो जानवरों में से किसी का कुछ हो जाए तो निकलते हैं पर फिर भी मुट्ठी भर और बच-बच कर कि कोई खतरा तो नहीं और नहीं है तथा सामने वाला कमजोर या कम है तो कायरता पूरी ताकत से क्रूरता दिखाती है और चीख की आवाज भी बुलंद होती है।

आज फिर भारत आजादी बनाम गुलामी, लोकतंत्र बनाम अधिनायकवाद, संविधान बनाम प्रधान की इच्छा, कानून बनाम सता की लाठी के बीच झूल रहा है। अधिकांश कोऊ नृप होय वाले हैं, तो बहुत से अज्ञात कारणों से प्रशंसक हैं तो बहुत से गली-गली में मुखिबर और बहुत से लाठी बंदूक और कानून की किताब के साथ इनके साथ खड़े हैं, तो बहुत से चाहे कलम से या कला से, जुबान से या आंखों की भाषा से लडाई भी लड़ रहे हैं सच की, ईमान की, लोकतंत्र की संविधान की और अंत में  यही जीत जाएंगे सारे जुल्म के बावजूद क्योंकि हमेशा ही ये मुट्ठी भर लोग ही जीते हैं। इतिहास तो यही बताता है। बस, देखना इतना है कि वो एक कौन होगा इस युद्ध का नायक और क्या कोई संपूर्ण भारत को कभी निकाल सकेगा चाहे जिसके खिलाफ चाहे जब और चाहे जो भी गलत हो? क्या कोई बदल पाएगा ये आवाज ‘कोऊ नृप होंय हमे का हानी’ से ‘को नृप होय ये हम ही जानी’ में।

डॉ. सी.पी. राय


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