बढ़ती आबादी : गंभीर होतीं पर्यावरणीय चुनौतियां

Last Updated 25 Jul 2024 12:15:00 PM IST

संयुक्त राष्ट्र द्वारा हाल में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की आबादी 2060 के दशक में 1 अरब 70 करोड़ तक पहुंच जाने का अनुमान है, जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जा रही है, पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं भी गंभीर चुनौती बनती जा रही हैं।


बढ़ती आबादी : गंभीर होतीं पर्यावरणीय चुनौतियां

हमें संसाधनों के विस्तार एवं विकास की योजनाओं के बीच पर्यावरण संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। हर विकास के अपने सकारात्मक और नकारात्मक नतीजे होते हैं। विकास योजनाओं में पर्यावरण का ख्याल रखना जरूरी है। अगर पर्यावरण की परवाह किए बिना विकास किया गया तो मनुष्य के लिए विनाश एवं विध्वंस का कारण बनेगी।

वर्तमान में भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के साथ-साथ तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर होते हुए विकास की नई गाथा लिख रहा है, लेकिन इसी के साथ पर्यावरण की उपेक्षा के कारण अनेक पर्यावरण समस्याएं विनाश एवं विध्वंस का कारण भी बन रही हैं। शहरी विकास की प्रक्रिया ने गांवों के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर दिया है। शहरों का अनियोजित विकास से महानगरों में असुरक्षित परिवेश, बढ़ता प्रदूषण, जल एवं शुद्ध हवा का अभाव ऐसी समस्याएं हैं, जो जीवन का अस्तित्व बचाए रखने के लिए चुनौती बन रही है। उन्नत विकास के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, जल चाहिए, मकान चाहिए, मैट्रो चाहिए और ब्रिज चाहिए।

इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं, या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रेत सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है और यही पर्यावरण प्रदूषण का बड़ा कारण है। विकास की ऊंचाइयां छूने के साथ हमें पर्यावरण संरक्षण की सीढ़ियां लगानी होंगी। अनुमान है कि 2050 के हिसाब से भारत में 70 प्रतिशत इमारतों का निर्माण होना बाकी है, ऐसे में निर्माण उद्योग को पर्यावरण अनुकूल आर्थिक पद्धति से जोड़ना भारत के आवासीय और शहरीकरण रोडमैप के लिए नितांत अपेक्षित है।

इसी तरह हर उद्योग के लिए पर्यावरण अनुकूल पद्धति को अपने कारोबार और रणनीति में जोड़ना जरूरी है। भारत जैसे विकासशील देशों में बुनियादी ढांचे के विकास की बहुत गुंजाइश और जरूरत है। अगर यह बुनियादी विकास व्यापक दायरे में और पर्यावरण के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए किया जाए तो हम देश में सतत एवं संतुलित विकास की उम्मीद कर सकते हैं। भारत में कई सड़क परियोजनाएं संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग कर रही हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण सड़क निर्माण में प्राथमिक सामग्री के रूप में स्टील ग्रिट्स का पुन: उपयोग करना है। सड़कों के किनारों पर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाना है।

भारत जैसे देश, जहां जनसंख्या अधिक और संसाधन सीमित हैं, में नीति-निर्माताओं के लिए पर्यावरण संरक्षणवादी होना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। हमें हर कीमत पर पृथ्वी को बेहतर और स्वच्छ बनाने के लिए उपाय करने होंगे। अर्थशास्त्र और मानव जीवन को प्रभावित करने वाले हर पहलू में स्थायी रूप से पर्यावरण मूलक विकास करना होगा। जरूरत है तकनीकी आविष्कार की जो पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था को संभव और सक्षम बना सके। देश में कूड़े को अलग-थलग करने के महत्त्व पर जोर दिया जाए। यह गीले कूड़े की कैलॉरी वैल्यू का पता लगाने और सूखे कूड़े को रिसाइकल करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। केंद्र सरकार की ओर से जारी अलग-अलग दूसरे नियम जैसे प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, ई-वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, कंस्ट्रक्शन एंड डेमोलिशन वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, मेटल्स रिसाइकलिंग पॉलिसी इत्यादि को राष्ट्रीय पर्यावरण अनुकूल रोडमैप के साथ जरूर जोड़ा जाना चाहिए।

पर्यावरण असंतुलित होने का सबसे बड़ा कारण आबादी का बढ़ना है जिससे आवासीय स्थलों को बढ़ाने के लिए वन, जंगल यहां तक कि समुद्र स्थलों को भी छोटा किया जा रहा है। पशुपक्षियों के लिए स्थान नहीं है। इन सब कारणों से प्राकृतिक का सतुंलन बिगड़ गया है और प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। वर्तमान में विकास की जो प्रक्रिया है वह पर्यावरण विनाश एवं प्रदूषण का कारण है। इसलिए यह सामयिक चुनौती है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त कैसे रखा जाए? पर्यावरण-अनुकूल जीवन की ओर बदलाव हमारे ग्रह के भविष्य, मानव-जीवन के अस्तित्व, व्यक्तिगत हित और आर्थिक समृद्धि में निवेश है। हम जो भी पर्यावरण के प्रति जागरूक विकल्प चुनते हैं, वह  स्वच्छ, हरित और टिकाऊ दुनिया की ओर कदम है। विकास की चढ़ाई पर्यावरण की दृष्टि से नाजुक और खतरों से भरी है। कदम-कदम पर सावधानी एवं जागरूकता चाहिए वरना पलों की खता सदियों की सजा बन जाती है। बेशक, विकास के सपने देखें मगर उनको हकीकत में बदलते हुए हम क्षण-क्षण पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति भी सचेत एवं सावधान रहें।

ललित गर्ग


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