कर्नाटक में आरक्षण : संघीय ढांचे पर न आए आंच
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब भारतीय संविधान में आरक्षण के प्रावधान को शामिल किया था, तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि आरक्षण एक समय भारतीय राजनीति की धुरी बनकर राजनेताओं के लिए एक ऐसा अमोघ मंत्र बन जाएगा, जिसका इस्तेमाल किसी के कल्याण के लिए कम और किसी को परास्त करने के लिए ज्यादा किया जाएगा।
कर्नाटक में आरक्षण : संघीय ढांचे पर न आए आंच |
आज आरक्षण के पीछे किसी पिछड़े या वंचित समाज के कल्याण की भावना कम और राजनीतिक स्वार्थ अधिक दिखती है। सही मायने में आज आरक्षण राजनीति का झुनझुना बन गया है, जिसे चुनाव जैसे विशेष मौकों पर जनता को रिझाने के लिए बजाया जाता है।
बहरहाल, आरक्षण एक बार फिर चर्चा में है। आरक्षण को लेकर चर्चा के केंद्र बिंदु में है कर्नाटक। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में कन्नड़ लोगों के लिए 100 प्रतिशत आरक्षण को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर पहले एक पोस्ट की थी, जिसे बाद में उन्होंने हटा लिया था। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक पोस्ट किया था, जिसमें कहा गया है कि कैबिनेट ने कर्नाटक में निजी उद्योगों और अन्य संगठनों में प्रशासनिक पदों के लिए 50 प्रतिशत और गैर-प्रशासनिक पदों के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण तय करने वाले विधेयक को मंजूरी दी।
सिद्धारमैया ने पोस्ट में कहा था, ‘हमारी सरकार की इच्छा है कि कन्नड़ लोगों को अपनी जमीन पर आरामदायक जीवन जीने का अवसर दिया जाए हम कन्नड़ समर्थक सरकार हैं। हमारी प्राथमिकता कन्नड़ लोगों के कल्याण का ध्यान रखना है। उन्हें कन्नड़ भूमि में नौकरियों से वंचित होने से बचाया जाए। हम कन्नड़ समर्थक सरकार हैं। हमारी प्राथमिकता कन्नडिगास के कल्याण की देखभाल करना है। जब उनके इस पोस्ट पर इस पर हर तरफ छीछालेदर होने लगा। विरोध में प्रतिक्रियाएं आने लगीं, तो दो दिन बाद उन्होंने सोशल मीडिया ‘एक्स’ प्लेटफॉर्म पर से पिछली पोस्ट हो हटाकर उसमें बदलाव कर दिया। कर्नाटक सरकार ने फिलहाल इस पर रोक लगा दी है। इसके साथ ही कहा जा रहा है कि कर्नाटक सरकार इस बिल पर पुनर्विचार करेगी, लेकिन यहां मौजू सवाल यह है कि आखिर इसकी जरूरत ही क्यों पड़ी। इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है?
कहीं आरक्षण की आड़ में देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त करने की कोशिश तो नहीं की जा रही? अगर नहीं, तो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए देश की एकजुटता और अखंडता पर प्रहार क्यों किया जा रहा है। आमतौर पर इस तरह की कोशिश क्षेत्रीय दल की सरकार में की जाती है, क्योंकि क्षेत्रीय दल अपने को उस राज्य के प्रति ज्यादा उत्तरदायी समझते हैं, जहां उनकी सरकार होती है। हालांकि इस तरह की सोच भी देश के संघीय ढांचे के लिए खतरनाक है। फिलवक्त कर्नाटक में तो कांग्रेस की सरकार है, फिर सिद्धारमैया सरकार ने ऐसी संकीर्ण मानसिकता क्यों दिखाई। जाहिर तौर पर इससे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन यहां चिंता का विषय कांग्रेस का नुकसान नहीं, अपितु राष्ट्र का और देश के संघीय ढांचे के नुकसान को लेकर है।
अगर सभी राज्य सरकारें अपनी मर्जी की मालिक हो जाएंगी, तब तो देश का स्वरूप ही बिखर जाएगा। देश है, देश का एक स्वरूप है, उसकी अस्मिता है, तभी आरक्षण है। यह कहना ग़लत न होगा कि भारत में आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को समृद्ध बनाने के लिए हुई थी, मगर समय के साथ आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का शिकार बनती चली गई और अब तो स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि आरक्षण की आंच देश की संघीय व्यवस्था पर भी आने लगी है। किसी राज्य में आरक्षण का दायरा बढ़ाने के लिए देश के स्वरूप और उसके संघीय ढांचे को ध्वस्त नहीं किया जा सकता। यह सहज ही समझा जा सकता है कि जब सभी राज्य सिर्फ अपने प्रदेश के लोगों को नौकरी देने लगेंगे। वहां के प्राइवेट सेक्टर में सिर्फ उसी राज्य के लोगों को रखा जाने लगेगा, तब भारत एक संघ रह जाएगा क्या? इसलिए राजनीतिक दलों और राज्य की सरकारों को यह जरूर सोचना होगा कि वे अपने प्रदेश के विकास की बात जरूर सोचें, प्रयास जरूर करें कि प्रदेश के लोगों को अपने ही राज्य में रोजी-रोजगार मिले, किंतु इसका भी ख्याल रखें कि देश की समावेशी संस्कृति को नुकसान न पहुंचे।
क्या कहता है भारतीय संविधान
भारतीय संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है। वहीं, अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वगरे को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है। वहीं, अनुच्छेद 16(4 ए) के अनुसार, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए कोई भी प्रावधान कर सकती हैं, यदि राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, लेकिन इन सबके पीछे संविधान ऐसा कुछ करने की इजाजत नहीं देता जिससे देश की अस्मिता, एकता और अखंडता पर खतरा उत्पन्न हो।
आरक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सबसे पहले विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने 1882 में मूलत: जाति-आधारित आरक्षण पण्राली का विचार प्रस्तुत किया था। आज जो आरक्षण पण्राली लागू है, वह सही मायने में 1933 में लागू की गई थी, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने ‘कम्युनल अवार्ड’ प्रस्तुत किया था। इस निर्णय में मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय लोगों और दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका का प्रावधान किया गया । लंबी चर्चा के बाद महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि एक ही हिन्दू निर्वाचन क्षेत्र होगा, जिसमें कुछ आरक्षण होंगे।
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