कृषि : बहुत अहम है परंपरागत बीज की रक्षा

Last Updated 30 Jun 2024 12:55:41 PM IST

कभी-कभी बहुप्रचारित विकास के दौर में कुछ बहुत बड़ी क्षति भी हो जाती है जिसके दुष्परिणामों को उस समय नहीं समझा जा सकता है, और इस कारण रोकने का प्रयास भी नहीं किया जाता है।


कृषि : बहुत अहम है परंपरागत बीज की रक्षा

1965 के आसपास जब हरित क्रांति का आगमन हुआ तब कुछ ऐसा ही हुआ। तेजी से ऐसे बाहरी बीज गांवों में फैलाए गए जो केवल रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के आधार पर बेहतर उत्पादकता दे सकते थे। इसे कृषि विकास का मुख्य आधार मान लेने के कारण उन विभिन्न फसलों की (सबसे अधिक चावल की) हजारों किस्मों का विस्थापन होने लगा जो सैकड़ों, संभवत: हजारों वर्षो के पूर्वज किसानों के अनुभव, ज्ञान और प्रयोगों के फलस्वरूप देश की जलवायु और अन्य जरूरतों के अनुरूप विकसित की गई थीं।
जब तक जैव-विविधता की इस बड़ी क्षति का अहसास हुआ, तब तक असहनीय क्षति हो चुकी थी। एक तरह से देश के सही कृषि विकास के लिए जैव-विविधता का जो आधार सैकड़ों वर्षो के प्रयास से संचित किया गया था, वह नीतिगत गलतियों के कारण बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था। भूल-सुधार के लिए अनेक सरकारी प्रयोगशालाओं और जीन-बैंकों में लुप्त हो रही अनेक फसलों की किस्मों और उप-किस्मों को बचाने का प्रयास किया गया, पर बीजों की वास्तविक रक्षा तो किसानों के खेतों पर ही होती है। यह ध्यान में रखते हुए अनेक जन-प्रयासों के माध्यम से भी बीजों की रक्षा का प्रयास आरंभ हुआ और इनमें से अनेक प्रयासों को उल्लेखनीय सफलता भी मिली। ऐसा ही एक प्रयास राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के मिलन स्थल के जिलों में वागधारा संस्था ने किया। इस संस्था ने महात्मा गांधी के स्वराज के विचार को विशेषकर ग्रामीण आत्म-निर्भरता के रूप में आगे बढ़ाया है। आदिवासी किसानों में इन विचारों को विशेष स्वीकृति मिली है। इसका एक कारण यह है कि वे अपने स्वास्थ्य और पोषण के अधिक अनुकूल मानी जाने वाली अनेक फसलों विशेषकर मोटे अनाजों और मिलेट फसलों को उगाते रहे हैं और इन फसलों के बहुत कम हो जाने के कारण उनके स्वास्थ्य और पोषण की क्षति हो रही थी जिसे वे महसूस भी कर रहे थे। इसके अतिरिक्त उनके परंपरागत बीजों में कम और अनिश्चित वष्रा जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में पनपने की जो क्षमता थी, वह प्राय: बाहरी बीजों में नहीं थी और इस कारण भी इन किसानों की कठिनाइयां बढ़ रही थीं।
इन स्थितियों में वागधारा और उससे जुड़े किसान-समूहों और महिला समूहों ने परस्पर विमर्श कर ऐसी पदयात्राएं निकालीं जिनसे गांव-गांव में परंपरागत बीजों की रक्षा का संदेश फैलाया जा सके। इस विषय पर जनचेतना और प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया गया ताकि बीजों की विभिन्न किस्मों की सही पहचान कर उनकी रक्षा का कार्य अधिक नियोजित ढंग से किया जा सके। गांववासियों में यह चेतना अधिक विकसित की गई कि हमारे जिन बुजुर्गों के पास परंपरागत बीजों, लुप्त हो रही फसलों और उनकी विभिन्न किस्मों का ज्ञान बचा हुआ है, उन बुजुर्गों को इसके लिए उचित सम्मान देते हुए यह ज्ञान हमें उनसे प्राप्त करना है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए इस ज्ञान की रक्षा की जा सके। ऐसे अनेक किसानों की पहचान की गई जिन्होंने बीज रक्षा के लिए विशेष रुझान दिखाया है। उन्हें बीज-मित्र और बीज-माता के रूप में सम्मानित किया गया। कनु देवी और कनी बहन जैसी अनेक महिलाओं ने बीज-संरक्षण के कार्य में विशेष योगदान दिया। जैमली बहन ने वृक्ष और फल आधारित जैव-विविधता की रक्षा का कार्य किया और इसके लिए नर्सरी भी विकसित की।
इन्हीं प्रयासों की श्रृंखला में जून के महीने में पांच दिनों के बीज उत्सव का आयोजन भी किया गया। बीज उत्सव के अंतर्गत राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात की आदिवासी पट्टी के गांवों में विशेष जनसभाओं का आयोजन किया गया जिनमें लगभग 1000 गांवों के लोगों ने भागेदारी की। इन जनसभाओं में कृषि और उद्यान विभागों के सरकारी अधिकारियों तथा स्थानीय कर्मचारियों और निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों की भागेदारी भी प्राप्त की गई।
इस तरह की लगभग 90 जनसभाओं का आयोजन विभिन्न गांवों में किया गया। इनमें विभिन्न किसान अपने साथ विभिन्न फसलों की प्रजातियों के बीज लेकर आए विशेषकर उन मोटे अनाजों के बीज जो हाल के दशकों में कम हो गए हैं। इन बीजों की प्रदर्शनी लगाई गई और विभिन्न किसानों और वागधारा के कार्यकर्ताओं ने इसके बारे में जानकारी दी। जिन किसानों को इनकी जरूरत थी, वे थोड़ी-थोड़ी मात्रा में इन बीजों को अपने खेत में उगाने के लिए ले गए। इस तरह प्राय: सभी किसान अपने साथ कुछ किस्मों के बीज लाए तो कुछ अन्य किस्मों के बीज वे अपने साथ ले गए। यह आदान-प्रदान किसानों के लिए बहुत उपयोगी भी रहा और इससे उनकी बीज और कृषि संबंधी जानकारी में वृद्धि भी हुई। इस तरह के विभिन्न किसानों के छोटे-छोटे सम्मेलनों के समाप्त होने पर यहां उपस्थित किसानों ने परंपरागत देशीय बीजों को बचाने की शपथ भी ली। विजयपाल नामक एक किसान ने कहा कि देशीय बीजों की रक्षा के बारे में बहुत कुछ कहने-करने की इच्छा होती थी, अब हमें इसके लिए उपयुक्त मंच मिल गया है। अब हम इसके माध्यम से युवाओं को इस प्रयास से अधिक जोड़ेंगे। परंपरागत देशीय बीजों को प्राय: बुजुर्गों के ज्ञान से जोड़ा जाता है, पर यदि युवा भी इस प्रयास से जुड़ेंगे तो इस विरासत का नया उपयोग ऐसे अनेक खाद्यों में जुड़ी आजीविका और उद्यम में कर सकते हैं जो स्वास्थ्य और  पोषण के महत्त्व को अधिक समझने वाले ग्राहकों के आधार पर पनप सकते हैं। बड़े-बड़े शहरों में ऐसे उपभोक्ता अब स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण मिलेट और अन्य खाद्यों के लिए बेहतर कीमत देने की तैयार हैं।
इस तरह परंपरागत बीजों की रक्षा केवल परंपरा और विरासत की रक्षा का कार्य ही नहीं है, अपितु आधुनिक समय के अनेक स्वास्थ्यवर्धक और बेहतर पोषण गुणों के उद्यम भी इन परंपरागत बीजों की रक्षा के आधार पर पनप सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि परंपरा और आधुनिकता के इस संबंध को भली-भांति, तथ्यों और र्तको के आधार पर प्रतिष्ठित किया जाए ताकि इसके नीतिगत महत्त्व और इसके व्यावहारिक क्रियान्वयन, दोनों को बेहतर ढंग से आगे बढ़ाया जा सके। इस कार्य को परंपरा और आधुनिक ज्ञान के सुंदर मिलन के रूप में आगे बढ़ाना चाहिए। जहां बीजों संबंधी बहुत सा परंपरागत ज्ञान और पूर्वजों का ज्ञान ऐसे अभियान के लिए बहुत जरूरी है, वहां बीजों की पहचान और वर्गीकरण के नये वैज्ञानिक तौर-तरीके भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इस तरह वैज्ञानिकों और किसानों, तकनीकी विशेषज्ञों और बुजुर्गों के आपसी सहयोग से यह कार्य भली-भांति आगे बढ़ सकता है।

भारत डोगरा


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