वैश्विकी : मोदी-पुतिन शिखर वार्ता
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में घरेलू और विदेश मोच्रे पर चुनौतियों का सामना है। आशानुरूप जनादेश नहीं मिलने के कारण उन्हें घरेलू राजनीति में अपना जनाधार बनाए रखने और यथासंभव उसका विस्तार करने की चुनौती पेश है।
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कारगर विदेश नीति के लिए जरूरी है कि किसी नेता को अपने देश में जनता का भरपूर समर्थन मिले। भारत में आम तौर पर विदेश नीति को लेकर मतैक्य रहा है, लेकिन हाल के वर्षो में राजनीतिक दलों में वैमनस्यता और अविश्वास बढ़ा है। इसका असर विदेश नीति पर भी दिखाई दिया है। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने भारत के भरोसेमंद दोस्त रूस और उसके नेता ब्लादिमीर पुतिन के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी की थी। रूस के विदेश मंत्रालय की ओर से भी यह आरोप लगाया गया था कि अमेरिका भारतीय चुनाव प्रक्रिया में दखलअंदाजी कर रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश नीति की निरंतरता को कायम रखने के लिए बहुत चतुराई का प्रदर्शन किया। चुनाव परिणाम आने से पहले ही ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह समझौता किया गया। यदि चुनाव के बाद विपक्षी सरकार बनती तो यह समझौता होता या नहीं, यह अनुमान का विषय है। सरकार बनने के बाद अपनी पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा के रूप में रूस का चुनाव करना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। मोदी अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही रूस के साथ अपने संबंधों को पुख्ता बनाना चाहते हैं। अमेरिका सहित पश्चिमी देश भारत और प्रधानमंत्री मोदी के प्रति बेरुखी का रवैया अपनाने लगे हैं। आगे चलकर यह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष विरोध में बदल सकता है। ऐसे में मोदी की जवाबी रणनीति यह प्रतीत होती है कि रूस के साथ संबंधों को और मजबूत बनाया जाए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक में ऐसी ही रणनीति अपनाई थी। भारत ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि की थी जिसके कारण बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय भारत अमेरिका की चुनौती का सामना कर सका।
प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा 8 और 9 जुलाई को संभावित है। इसी समय वाशिंगटन में नाटो सैन्य संगठन की शिखर वार्ता भी होने वाली है। कूटनीतिक सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच एक महत्त्वपूर्ण सैन्य सहयोग समझौता हो सकता है। इसके अंतर्गत रूस के युद्धपोत भारतीय बंदरगाहों में ठहराव और मरम्मत आदि की सुविधा हासिल कर सकते हैं। भारत ने कुछ वर्ष ऐसा ही समझौता अमेरिका और कुछ अन्य देशों के साथ भी किया था। लेकिन मौजूदा रणनीतिक परिदृश्य में रूस की नौसेना को यह सुविधा दिया जाना अमेरिका के लिए खतरे की घंटी है। रूस ने हाल में उत्तर कोरिया के साथ सैन्य गठबंधन किय है, जो जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इसी तरह रूसी सैनिकों ने हिन्द महासागर और अरब सागर में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। रूस और ईरान इस समुद्री क्षेत्र में अमेरिका के दबदबे को चुनौती दे रहे हैं। कुल मिलाकर पूरे हिन्द प्रशांत क्षेत्र में रूस की मौजूदगी पिछले शीत-युद्ध वाले दौर की याद दिलाती है। इन हालात में रूस और भारत के बीच बढ़ता सैन्य सहयोग पर अमेरिका क्या रवैया अपनाता है, यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा।
प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान ही दोनों देश एस-400 मिसाइल प्रणाली के साझा उत्पादन के संबंध में भी समझौता कर सकते हैं। मेक इन इंडिया मिशन की यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। कुछ महीनों बाद रूस में ही ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का आयोजन होना है। लगातार व्यापक बन रहे ब्रिक्स संगठन के जरिए ग्लोबल साउथ आर्थिक मोच्रे पर घरेलू करंसी को मजबूत बनाने और अमेरिकी मुद्रा डॉलर का वर्चस्व समाप्त करने का फैसला भी कर सकते हैं।
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