राजनीति : यू-टर्न की माया

Last Updated 26 Jun 2024 01:26:19 PM IST

सियासत होती ही ऐसी है कि कोई भी सीधी राह नहीं चलता। एक यदि आरएसएस को अपवाद मान लिया जाए तो चाहे वे समाजवादी रहे हों या वामपंथी या फिर कांग्रेस जैसे नरम दक्षिणपंथी ही क्यों न हो, सभी अपनी राह समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहे हैं।


राजनीति : यू-टर्न की माया

इनमें अंबेडकरवादी आंदोलन से उपजे राजनीतिक दल भी शामिल हैं। चूंकि वर्तमान में देश में दलित समुदायों को सबसे अधिक बहुजन समाज पार्टी प्रिय है, लिहाजा यह बेहद मौजूं विषय है कि मायावती अपनी राजनीति में किस तरह की करवटें बदल रही हैं।  

हाल में उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय समन्वयक बनाकर फिर से अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है जबकि लोक सभा चुनाव के प्रारंभिक चरणों में उन्होंने आकाश आनंद को न केवल राष्ट्रीय समन्वयक, बल्कि अपने उत्तराधिकार की गद्दी से भी उतार दिया था। तब मायावती ने कहा था कि आकाश अभी अपरिपक्व हैं।  दरअसल, इस बार के लोक सभा चुनाव के पहले बसपा को लेकर उसके कैडर में ऊहापोह की स्थिति रही। वजह यह कि मायावती ने अंतिम समय तक अपने पत्ते नहीं खोले कि वह इंडिया गठबंधन में शामिल होंगी या एनडीए गठबंधन में। अंतिम समय में उन्होंने अकेले ही चुनाव लड़ने का निर्णय लिया।

लेकिन जिस तरह से उन्होंने उत्तर प्रदेश, जहां लोक सभा की कुल 80 सीटें हैं, में अपने उम्मीदवारों, जिनमें अधिकांश मुसलमान थे, का चयन किया तो  उनके कैडर मतदाताओं को भी लगने लगा कि मायावती खास रणनीति के तहत चुनाव लड़ रही हैं। हालांकि पहला मौका नहीं था जब मायावती ने दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं पर यकीन किया। इसके पहले भी वह इस रणनीति को आजमाती रही हैं। लेकिन तब होता यह था कि ओबीसी का एक हिस्सा उनके साथ खड़ा रहता था। इसके पीछे वजह यह होती थी कि पिछड़ा वर्ग के अनेकानेक नेता तब बसपा के हिस्सा थे। इनमें स्वामी प्रसाद मौर्य से लेकर बाबू सिंह कुशवाहा आदि नेता भी थे। इस कारण होता यह था कि दलित, अल्पसंख्यक और गैर-यादव पिछड़ा वर्ग के साथ होने की वजह से बसपा या कहिए कि मायावती की राजनीति चलती रहती थी।

लेकिन धीरे-धीरे गैर-यादव पिछड़ा वर्ग बसपा से दूर होने लगा। यही वजह रही कि 2007 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अपने बूते सरकार बनाने वाली मायावती पिछली बार हुए विधानसभा चुनाव में केवल एक सीट और हाल में संपन्न लोक सभा चुनाव में एक सीट भी जीतने में नाकाम रहीं, लेकिन इस बार के चुनाव के पहले तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बसपा के समर्थकों के मन में एक आस थी। यह आस आकाश आनंद के रूप में थी। आस की वजह यह थी कि मायावती ने एक नौजवान को अपना उत्तराधिकारी बनाया था और उनके समर्थकों को लगने लगा था कि अब यह पार्टी फिर से जीवित हो सकेगी। इसी विश्वास और कामना के साथ आकाश आनंद ने जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के लिए चुनावी अभियान की शुरुआत की तब उनके समर्थकों में जोश भर गया। बड़ी संख्या में लोग उनकी रैलियों में जुटने लगे।

एकबारगी लगने लगा कि बसपा भाजपा की ‘बी’ टीम नहीं है। इसकी वजह भी थी। और वजह यह थी कि आकाश आनंद ने केंद्र में सत्तासीन भाजपा को आड़े हाथों लेना शुरू किया। उन्होंने बेरोजगारी, महंगाई और देश में बढ़ रही नफरत के लिए भाजपा की आलोचना खुले मंच से की। आकाश आनंद के इस रुख ने देश भर के राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। बसपा के कैडर समर्थकों को भी लगने लगा कि यदि यही दिशा और  संवेग कायम रहा तो जो गैर-यादव पिछड़ा वर्ग है और जो मुसलमान हैं, वे बसपा को अपना समर्थन देंगे। लेकिन इससे पहले कि आकाश आनंद की यह रणनीति विस्तार पाती, मायावती ने उन्हें उत्तराधिकारी की गद्दी से नीचे उतार दिया। उनके द्वारा अचानक लिए गए इस फैसले को उनके कैडर समर्थकों ने भी इसी रूप में माना कि शायद मायावती को आकाश आनंद द्वारा भाजपा सरकार की आलोचना पसंद नहीं है, और यह इसलिए कि वह भाजपा के दबाव में हैं।

नतीजा यह हुआ कि चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा दलित नेता ने पहली ही बार में नगीना लोक सभा का चुनाव जीत लिया और मायावती बुरी तरह हार गई। मायावती के उपरोक्त कदम से सबसे अधिक निराश गैर-जाटव दलित, गैर-यादव पिछड़े और मुसलमान हुए, लेकिन लोक सभा चुनाव के बाद मायावती ने अपने फैसले को दुबारा क्यों पलटा, इस बारे में हालांकि उनकी ओर से कोई सफाई नहीं दी गई है, लेकिन सियासी गलियारे में सभी जानते हैं कि लोक सभा चुनाव में जीत मिलने के बाद चंद्रशेखर की पकड़ दलित मतदाताओं पर तेजी से बढ़ने लगी है।

हाल में चंद्रशेखर ने सार्वजनिक रूप से यह बयान भी दिया था कि यदि आकाश आनंद चाहें तो उनकी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं। माना जा रहा है कि चंद्रशेखर के इस सार्वजनिक आमंत्रण ने मायावती को अपना फैसला बदलने पर मजबूर कर दिया। उन्हें भय सताने लगा कि यदि आकाश चंद्रशेखर के साथ चले गए तब बसपा के कैडर समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ हो जाएगा और बदली हुई परिस्थितियों के मद्देनजर यह नामुमकिन भी नहीं है। इसे ऐसे देखें कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक की राजनीति कर रहे हैं, और इस बार लोक सभा चुनाव में उन्होंने इसी फार्मूले के आधार पर भाजपा को 33 सीटों पर समेट दिया।

अब चूंकि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की बारी है तो अखिलेश अपने इसी फार्मूले को आजमाएंगे। उनका पूरा जोर गैर-यादव ओबीसी, दलितों और अल्पसंख्यकों को साधने पर होगा, जो पूर्व में एक तरह से बसपा की रणनीति हुआ करती थी। ऐसे में मायावती के पास खुद को और अपनी पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए पहल लेनी ही थी। इसलिए उन्होंने आकाश को फिर से जिम्मेदारी सौंपी है। अब देखना दिलचस्प होगा कि आकाश आनंद मायावती के उत्तराधिकारी के रूप में अपनी दूसरी पारी में कितना प्रभाव डाल पाते हैं, और यह भी कि मायावती अखिलेश के पीडए फार्मूले का काट ढूंढ़ती रहेंगी या फिर भाजपा के खिलाफ उठ खड़ी होंगी।

नवल किशोर कुमार


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