चूहा-बिल खदान : अवैध खनन का खेल

Last Updated 30 May 2024 12:22:21 PM IST

मई 26 को असम के तिनसुकिया जिले की पाटकाई पहाड़ियों पर अवैध रूप से संचालित ‘रेट होल माइंस’ में दब कर तीन लोग मारे गए।


चूहा-बिल खदान : अवैध खनन का खेल

विदित हो पास ही मेघालय के पूर्वी जयंतिया जिले में  कोयला उत्खनन की 26 हजार से अधिक ‘रेट होल माइंस’ अर्थात चूहे के बिल जैसी खदानें बंद करने के लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेश को दस साल हो गए हैं, लेकिन आज तक एक भी खदान बंद नहीं हुई। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी इन खतरनाक खदानों को बंद करने लेकिन पहले से निकाल लिए गए कोयले के परिवहन के आदेश दिए थे।

इस काम की निगरानी के लिए मेघालय हाई कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस बीके काटके समिति ने अपनी 22वीं अंतरिम रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह ये खदानें अभी भी मेघों का देश कहे जाने वाले प्रदेश के परिवेश में जहर घोल रही हैं। उल्लेखनीय है कि कभी दुनिया में सबसे अधिक बरसात के लिए मशहूर मेघालय में अब प्यास ने डेरा जमा लिया है। यहां नदियां  जहरीली हो रही हैं, और सांस में कार्बन घुल रहा है। यह सब हो रहा है इन खतरनाक खदानों से कोयले के अवैध, निर्बाध खनन के कारण। हाई कोर्ट की कमेटी बताती है कि अभी भी अकेले पूर्वी जयंतिया जिले की चूहा-बिल खदानों के बाहर 14 लाख मीट्रिक टन कोयला पड़ा हुआ है जिसको हटाया जाना है।

दस साल बाद भी इन खदानों को कैसे बंद किया जाए, इसकी ‘विस्तृत कार्यान्वयन  रिपोर्ट’ अर्थात डीपीआर प्रारंभिक चरण में केंद्रीय खनन योजना एवं डिजाइन संस्थान लिमिटेड (सीएमपीडीआई) के पास लंबित है। एक बात और, 26 हजार की संख्या तो केवल एक जिले की है, ऐसी ही खदानों का विस्तार वेस्ट खासी हिल्स, साउथ वेस्ट खासी हिल्स और साउथ गारो हिल्स जिलों में भी है। इनकी कुल संख्या सात हजार से अधिक होगी। जस्टिस काटके की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘मेघालय पर्यावरण संरक्षण एवं पुनर्स्थापन निधि (एमईपीआरएफ) में 400 करोड़ रु पये की राशि बगैर इस्तेमाल पड़ी है, और इन खदानों के कारण हुए प्रकृति को नुकसान की भरपाई का कोई कदम उठाया नहीं गया।

मेघालय में प्रत्येक एक वर्ग किलोमीटर में 52 रेट होल खदान हैं। अकेले जयंतिया हिल्स पर इनकी संख्या 26 हजार से अधिक है। असल में ये खदानें दो तरह की होती हैं। पहली किस्म की खदान बमुश्किल तीन से चार फीट की होती हैं। इनमें श्रमिक रेंग कर घुसते हैं।  साइड कटिंग के जरिए मजूदर को भीतर भेजा जाता है और वे तब तक भीतर जाते हैं, जब तक उन्हें कोयले की परत नहीं मिल जाती। सनद रहे मेघालय में कोयले की परत बहुत पतली हैं, कहीं-कहीं तो महज दो मीटर मोटी। इसमें अधिकांश बच्चे ही घुसते हैं।

दूसरे किस्म की खदान में आयताकार आकार में 10 से 100 वर्गमीटर माप में जमीन को काटा जाता है और फिर उसमें 400 फीट गहराई तक मजदूर जाते हैं। यहां मिलने वाले कोयले में गंधक की मात्रा ज्यादा है और इसे दोयम दर्जे का कोयला कहा जाता है। तभी यहां कोई बड़ी कंपनी खनन नहीं करती। ऐसी खदानों के मालिक राजनीतिक दलों से जुड़े हैं, और श्रमिक बांग्लादेश, नेपाल या असम से पहुंचे घुसपैठिए होते हैं।

एनजीटी की रोक के बाद मेघालय की पिछली  सरकार ने स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय आदिवासियों के अधिकार के कानून के तहत  इस तरह के खनन को वैध रूप देने का प्रयास किया था लेकिन कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1973 की धारा 3 के तहत  कोयला खनन के अधिकार, स्वामित्व आदि हित केंद्र  सरकार के पास सुरक्षित हैं। सो, राज्य सरकार अवैध खनन को वैध का अमलीजामा नहीं पहना पाई। लेकिन गैर-कानूनी खनन, भंडारण  और पूरे देश में इसका परिवहन चलता रहता है।

आये रोज लोग मारे जाते हैं, कुछ जब्ती और गिरफ्तारियां होती हैं, और खेल जारी रहता हैं। रेट होल खनन न केवल अमानवीय है, बल्कि इसके चलते यहां से बहने वाली कोपिली नदी का अस्तित्व ही मिट सा गया है। एनजीटी ने अपने पाबंदी आदेश में कहा था कि खनन इलाकों के आसपास सड़कों पर कोयले का ढेर जमा करने से वायु, जल और मिट्टी के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। भले ही कुछ लोग इस तरह की खदानों पर पाबंदी से आदिवासी अस्मिता का मसला जोड़ते हों, लेकिन हकीकत सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत नागरिक समूह की रिपेर्ट में बताई गई थी कि अवैध खनन में प्रशासन, पुलिस और बाहर के राज्यों के धनपति नेताओं की हिस्सेदारी है, और स्थानीय आदिवासी तो केवल शेषित श्रमिक ही हैं।

सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि कोयले की कालिख राज्य की जल निधियों की दुश्मन बन गई है। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिल कर बनी है, इसमें लुनार नदी के मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा और कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा और पानी में आक्सीजन की कमी पाई गई है। एक और खतरा है कि जयंतिया पहाड़ियों  के गैर-कानूनी खनन से कटाव बढ़ रहा है, दलदल बढ़ने से मछलियां कम आ रही हैं। ऊपर से जब खनन का मलबा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा जाता है। मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उनके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है।

विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड से ले कर एनजीटी तक सभी विफल हैं। दुर्भाग्य है कि अदालत की फटकार है, पर्याप्त धन है लेकिन इन खदानों से टपकने वाले तेजाब से प्रभावित हो रहे जनमानस को कोई राहत नहीं है। यह हरियाली चाट गया, जमीन बंजर कर दी, भूजल इस्तेमाल लायक नहीं रहा और बरसात में यह पानी बह कर जब पहाड़ी नदियों में जाता है तो वहां भी तबाही ला देता है। नदी में मछलियां लुप्त हैं। मेघालय पुलिस यदा कदा अवैध कोयला की ढुलाई को लेकर मुकदमे जरूर दर्ज करती है, लेकिन ये कागजी औपचारिकता से अधिक नहीं हैं। आज जयंतिया हिल्स में असम से आए रोहिंग्या श्रमिकों की बस्तियां हैं, जो सस्ते श्रम को स्वीकार कर जान दांव पर लगा अवैध खदानों से हर रोज कोयला निकालते हैं।

अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चेरापूंजी अब सर्वाधिक बारिश  वाला गांव नहीं रह गया है। यदि कालिख की लोभ में नदियां भी खोदीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट में होगा।

पंकज चतुर्वेदी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment